Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 11
________________ स्वीकार नहीं थी। इस विषय में उनका अनुशासन कठोर था। इस कठोरता में भी एक आनंद था। उनका स्नेहभाव सभी पर समान रूप से था। सद्दादगुरुव-श्री अपने संयम जीवन के साठ वर्ष पूर्ण करने वाले थे और सद्गुरुवर्याश्री. चवालीस वर्ष। सद्दादगुरुवर्याश्री की दीक्षा के साठ वर्ष पूर्ण होने पर उनकी दीक्षा हीरक जयंती मनाने और उस अवसर पर कुछ विशिष्ट आयोजन करने के भाव मेरे मानस पटल पर उभर रहे थे। मैं यह निश्चित नहीं कर पा रही थी कि दीक्षा हीरक जयंती कार्यक्रम किस प्रकार निर्धारित किया जावें। मैंने अपने ये विचार किसी पर भी प्रकट नहीं किये कि इसी बीच हमारा विहार कन्याकुमारी की ओर हो गया। कन्याकुमारी से वापस मद्रास की ओर विचरण करते समय मेरे मानस पटल पर इस समारोह के लिये कार्यक्रम की कुछे रेखायें उभरने लगी और मैं मन ही मन विचार करने लगी कि जब कुछ रूपरेखा बन जावे तब अपनी सहयोगी साध्वी बहनों के सम्मुख अपने विचार प्रकट करुं। किन्तु नियति को शायद यह सब कुछ स्वीकार नहीं था। मेरे विचारों को सबसे गहरा आघात उस समय लगा जब हम मद्रास की ओर अपने कदम बढ़ा रही थी। एकाएक समाचार मिला कि मेरे जीवन निर्मात्री सद्गुरुवर्याश्री परम विदुषी महासती श्री. चम्पाकुंवरजी म. सा. ने अपने नश्वर देह का त्याग कर दिया है। इस समाचार ने. मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया। मैं शून्य में खो गई और अपने आपको असहाय अनुभव करने लगी। अब आगे क्या होगा ? कैसे होगा ? जैस प्रश्न मेरे मानस पटल पर मंडराने लगे। साथी गुरु बहनों ने धीरज बंधाया और कहा - सहास से काम लो। जन्म-मृत्यु का चक्र तो शाश्वत है। जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु भी अवश्य है। जो आया है, वह जाएगा ही। इस चक्र से तो तीर्थंकर भी नहीं बच पाये हैं। जैसे-तैरो मद्रास सद्दादगुरुव-श्री की सेवा में पहुंचे। उन्हें भी अपनी प्रिय सुयोग्य सुशिष्या के एकाएक चले जाने का गहरा आघात लगा था, किन्तु उन्होने अपने सुदीर्घ जीवन काल में सब कछ जान-समझ लिया था। मैंने तो अपने जीवन की देहरी पर कदम रखा ही था कि यह असहनीय आघात लग गया। __कहते हैं समय बहुत बड़ी औषधि है। समय बीतता गया और सब कुछ यथावत होता गया। कुछ समय पश्चात् विचार उत्पन्न हुए कि सद्गुरुव-श्री की पावन स्मृति में कुछ करना चाहिए। क्या किया जाए? यह विचार चिंतन चला। अंत में अपने अध्ययनशील मानस पर एक स्मारिका प्रकाशित करने का विचार बनाया। इसे क्रियान्वित सर्वप्रथम मैंने अपनी वरिष्ठ गरु बहनों के समक्ष अपने विचार रखें। उनसे मुझे इस सम्बन्ध में प्रोत्साहन ही मिला। इससे मेरा उत्साह बढ़ गया। इसके पश्चात्, मद्रास के धर्म अनुरागी और परम गुरुभक्त भाई श्री रीखबचंद जी लोढ़ा के समक्ष अपनी योजना रखी। श्री लोढ़ा जी ने मेरी योजना का न केवल समर्थन किया वरन् तन, मन और धन से सहयोग करने का भी वचन दिया। इतना सब कुछ निश्चित हो जाने के उपरांत चार सौ पृष्ठों की एक स्मारिका प्रकाशित करने के लिए उज्जैन (म. प्र.) के डॉ. तेजसिंहजी गौड़ को एक पत्र लिखा (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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