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सद्दादगुरुवर्याश्री की सेवा सुश्रुषा विख्यात है। उन्हें दूसरों की सेवा करने में परमानंद की अनुभूति होती थी किन्तु जहाँ तक मुझे याद है उन्होंने कभी भी किसी से अपनी सेवा नहीं करवाई। अपने अंतिम समय में भी वे अपना कार्य स्वंय ही किया करती थी। उनकी प्रवचन शैली भी निराली थी। अपने प्रवचनों में वे शास्त्रीय उद्धरणों के साथ कथा/दृष्टांतों का समावेश किया करती थी। उनका कथा/कहानी सुनाने का अपना ढंग था। कहानी वे अक्सर मारवाड़ी में ही सुनाया करती थी। आपके श्रीमुख से मारवाड़ी में कहानी सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे।
सद्गुरुवर्याश्री का समाज के उत्थान के लिये किये जाने वाले प्रयासों, स्वाध्यायशीलता और ओजस्वी प्रवचनकी के रूप में विशेष स्थान है। अपने प्रवचनों में आप शास्त्रीय उद्धरणों को प्रस्तुत कर उनका बोधगम्य भाषा शैली में विवेचन कर
को भावविभोर कर दिया करती थी। आपकी प्रवचन शैली की विशेषता यह थी कि श्रोता प्रवचन पीयूष का पान करने के लिये स्वतः ही खींचा चला आता था। अवसरानुकूल दृष्टांतों को भी आप अपने प्रवचन में सम्मिलत कर लिया करती थीं। इससे प्रवचन में रोचकता उत्पन्न हो जाती थी। .
आप सतत् स्वाध्याय करती रहती थी और अपनी शिष्याओं को भी स्वाध्याय के लिए प्रेरित करती रहती थी। ज्ञान प्राप्ति के लिये आप अपनी शिष्याओं को न केवल प्रेरणा दिया करती थी वरन् आवश्यकतानुसार विद्वान पंडितों की भी व्यवस्था करवा दिया करती थी और समय-समय पर आप स्वयं भी अध्यापन किया करती थी। सद्दाद गुरुवर्याश्री. एवं सद्गुरुव-श्री दोनों ने ही अपने संयमित जीवन का अधिकांश समय मारवाड़ की धरा पर जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए व्यतीत किया। वि. सं. २०३४ का अपना पाली (मारवाड़) का यशस्वी वर्षावास समाप्त कर जनभावना का, आदर करते हुए आपश्री ने मध्यप्रदेश की ओर विहार किया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आपने कटंगी, बालाघाट, दुर्ग, बालोद आदि नगरों में जैन धर्म की ध्वजा फहराई
और फिर महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में विचरण कर गरु गच्छ के चाँद लगाये। कर्नाटक से आपने श्रद्धालु भक्तों के आग्रह को स्वीकार कर मद्रास की ओर विहार किया और वि. सं. २०४४ से अपने अंतिम समय तक साहुकार पेठ मद्रास में विराजकर जिनवाणी का अमृत बरसाया। यहाँ यह स्मरणीय है कि बीच-बीच में सद्दाद गुरुवर्याश्री की अस्वस्था भी बनी रही किन्तु इस अस्वस्थता में भी आपने संयम पालन
और अपने धर्म-निर्वाह में कहीं कोई शिथिलता नहीं आने दी। इस प्रकार मारवाड़ की पावन धरा पर जन्म लेकर सुदूर दक्षिण भारत में जाकर आप श्री ने जन-जन में जैन धर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न किया। आपके अंतिम समय में जिन-जिन भाई-बहनों ने सेवा का लाभ लिया वे साधुवाद के पात्र हैं।
सद्दादगुरुव-श्री एवं सद्गुरु-श्री दोनों ही स्वभाव से सरल, सहज, परदुःखकातर, क्षमाशील एवं समताभावी थी। किन्तु संयम पालन में शिथिलता दोनों को ही
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