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उक्कस्ससत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा
सिया बं० सिया अवं० । यदि वं० तं तु० । अथिर असुभ अजस० सिया बं० सिया अ० । यदि बं० यि० अणु दुभागूणं बंधदि । एवं देवाणुपु० ।
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६. एइंदियस्स उक्क० द्विदिबंध • तिरिक्खग० ओरालि ० तेजा ० क ० - हुडसं ० वरण०४ - तिरिक्खाणु० गु० ४ थावर - बादर - पज्जत्त - पत्ते ० -अथिरादिपंच० - णिमि० पिय० बं० । तं तु० । आदाउज्जो ० सिया बं० सिया अबं० । यदि बं० । तं तु० । एवं आदाव थावर० 1
१०. बीइंदि०. उक० हिदिवं ० तिरिक्खग० ओरालि० - तेजा ० क ०- - हुड ०ओरालि० अंगो०- संपत्त० - वरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगु० - उप०-तस०- बादर-पत्ते ०अथिरादिपंच० - मि० पिय० बं० । अणु संखेज्जदिभागूणं बंधदि । पर०उस्सा ०-उज्जो ० - अप्पसत्थ० - पज्ज' ० - अपज्ज० - दुस्सर सिया बं० 1 तं तु० । असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है । स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एकसमय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक बाँधता है । अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्तन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो नियमसे अनुत्कृष्ट दो भाग न्यूनको बन्धक होता है । इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीके श्राश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
९. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक बाँधता है। श्रातप और उद्योत इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है, तो वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है, तो वह नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यूनतक बाँधता है । इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियोंके आश्रय से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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१०. द्वीन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । वह अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। परघति, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वर, इन प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रवन्धक होता है । किन्तु यदि बन्धक होता है, तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका १. मूलप्रतौ पज० दुस्सर अपज्ज० साधार० सिया इति पाठः । २. मूलप्रतौ तं तु णा० दं० सिया
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