Book Title: Lalitvistarakhya Chaityavandan Sutra Vrutti
Author(s): Haribhadrasuri, Munichandrasuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 209
________________ MR चतुर्थभाषारूपत्वात्तदुक्तं-"भासा असच्चमोसा णवरं भत्ती' भासिया एसा । न हु खीणपेज-1|| लादोसा देंति समाहिं च बोहिं च ॥१॥ तप्पत्थणाएँ तहवि य, ण मुसावाओवि एत्थ विष्णेओ। तप्पणिहाणाओ चिय तग्गुणओ हंदि फलभावा ॥२॥ चिंतामणिरयणादिहिँ, जहा उ भवा समीकहियं वत्थु । पावंति तह जिणेहिं तेसिं रागादभावेऽवि ॥ ३॥ वत्थुसहावो एसो अउवचिन्तामणी महाभागो। थोऊणं तित्थयरे पाविजड बोहिलामोत्ति ॥४॥ भत्तीए जिणवराणं खिज्जन्ती पवसंचिया कम्मा । गुणपगरिसबहुमाणो कम्मवणदवाणलो जेण ॥ ५॥” एतदुक्तं भवति-यद्यपि ते 5 भगवन्तो वीतरागत्वादारोग्यादि न प्रयच्छन्ति, तथाप्येवंविधवाक्यप्रयोगतः चतुर्थभाषारूपत्वादिति, अयमभिप्रायः-चतुर्थी हि एषा भाषा आशंसारूपा न कञ्चन सिद्धमर्थ विधातुं निषेधुं वाश समर्थेत्यनार्थका, प्रकृष्टशुभाध्यवसायः फलमस्या भवतीति सार्थिकेत्येवं भाज्यतेति ॥ प्रवचनाराधनतया सन्मार्गवर्त्तिनो महासत्त्वस्य तत्सत्तानिबन्धनमेव तदुपजायत इति गाथार्थः॥६॥ 9000000000000000 १०वाक्प्र० प्र० Jain Education International For Private & Personel Use Only www.jainelibrary.org

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