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[ ३ ] के कवि के अप्रस्तुत ठीक वे ही न हों, जो पुराने कवि के थे तथा वह आज के आलंकारिक चमत्कार को उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि नामों से अभिहित करने मे नाक-भौं सिकोड़ता हो। पर पुराने नामों तक से घृणा करना उसकी दूषित तथा कुत्सित मनोवृत्ति का परिचायक है । आज की प्रगतिवादी तथा मानवतावादी आलोचना ने भी साहित्यशास्त्र के अध्ययन को तथा शुद्ध साहित्यिक पर्यालोचन को करारा धका पहुंचाया है। मैं प्रगतिवादी तथा मानवतावादी आलोचना को हेय नहीं कहता, वह भी कवि तथा कृति के महत्त्व का पर्यालोचन करने के लिए उपादेय है, कितु एकमात्र वही नहीं। मानवतावादी मापदण्ड के साथ जब तक साहित्यिक मापदण्ड का उपादान न होगा, आलोचना पूर्ण न होगी, वह समाजशास्त्रीय लेख मात्र बनी रहेगी। इन नये खेवे के आलोचकों के गुरु, टी० एस० इलियट तक ने अपने एक निबंध में साहित्यिक पर्यालोचन में मानवतावादी तथा साहित्यशास्त्रीय दोनों तरह के मानों का प्रयोग करने की स्पष्ट सलाह दी थी। वस्तुतः दोनों शैलियों का समन्वय करने पर ही हम 'आलोचन-दर्शन' को जन्म दे सकेंगे। हिंदी में इस प्रकार की शैली के जन्मदाता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल थे तथा मेरी समझ में आलोचना की वही शैली स्वस्थ है। रस, ध्वनि, रीति, अलंकार का समुचित ज्ञान एक साहित्यिक के लिए अत्यावश्यक है, वह उसे 'रूढियाँ' कह कर उसकी आलोचना भले ही करे, नये अलंकारों की कल्पना करे, नये नामकरण करे, नये प्रयोग करे, पर पुरानों को समझ तो ले। यदि ऐसा नहीं, तो स्पष्ट है कि वह किसी सीधे रास्ते से ही यश के गौरीशिखर पर पहुंचना चाहता है तथा वास्तविक साहित्यिक गुत्थियों में अपना समय उलझाना बेकार समझता है। हर्ष का विषय है कि इधर हिदी के कुछ विद्वानों का ध्यान इन साहित्यशास्त्रीय विषयों की ओर जाने लगा है, डॉ० नगेन्द्र इन विद्वानों के अग्रदूत कहे जा सकते हैं। रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, रस आदि के साथ ही अलंकारों के विकास पर भी एक गवेषणापूर्ण अध्ययन की हिंदी में आवश्यकता है जिसमें आचार्य भरत से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक के अलंकारसंबंधी विचारों का विवेचन करते हुए प्रमुख अलंकारों का ऐतिहासिक तथा साहित्यिक पर्यालोचन हो । इन पंक्तियों का लेखक शीघ्र ही भारतीय साहित्यशास्त्र तथा काव्यालंकार' के नाम से एक प्रबंध प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा है । आशा है, यह प्रबंध उक्त कमी को कुछ पूरा कर सकेगा।