Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith

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Page 22
________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य स्वीकार कराया। अपने अनुपम उपदेश द्वारा, प्रजाजनोंको नैतिक और धार्मिक जीवनका सन्मार्ग दिखाया। अवकाशके समयमें अनेक ग्रंथोंकी रचना कर, जैन-साहित्यकी शोभामें असाधारण अभिवृद्धि की और भारतकी भावी प्रजाके ऊपर अत्यंत उपकार किया। पुनः पाटनमें प्रवेश सिद्धराजके मरने बाद गुर्जरभूमिके अधिपति महाराज कुमारपाल देव हुए। कितनेक वर्षों तक तो वह, अपने राज्यकी सुव्यवस्था करनेमें तथा शत्रुओंका मानमर्दन करनेमें लगे रहे / दिग्विजय कर अनेक राजाओंको, अपनी आज्ञाके वशवर्ती किये / राज्यकी सीमा भी बहुत दूर तक बढाई / जब राज्य निष्कंटक हो गया और किसी प्रकारका उपद्रव न रहा तब, आप शांतिसे प्रजाका पालन करने लगे / देशमें सर्वत्र शांति फैल गई और कला कौशलकी वृद्धि होने लगी / यह सब वृत्तांत, जब भगवान् हेमचंद्राचार्यको ज्ञात हुआ, तब, उनको अत्यंत खुशी हुई; चित्त बडा प्रसन्न हुआ। शासनोद्धारकी की हुई प्रतिज्ञाके पूर्ण होनेका अवसर, नजदीक आया हुआ समझ कर, पुनः पाटन नगरको पवित्र किया। श्रीसंघने, इस समय आपका पुरप्रवेश बडे समारोहसे कराया / आपके आगमनसे शहर में सर्वत्र हर्ष छा गया / प्रतिज्ञा पूर्ण, सफल मनोरथ कुमारपाल महाराजको, पूर्वावस्थामें - राज्यप्राप्तिके पूर्वमें-आपने अनेक संकटोंसे बचाये थे / इस कारण वे, आपके उपकारभारसे तो दबे हुए थे ही; इस समय आपने, पुनः महाराजको एक प्राणांत भयसे रक्षित किया, जिससे, उस उपकारभारकी सीमा, अत्यंत बढ गई। आपकी इस प्रकार निष्कारण परोपकारिताको जान कर, महाराज बडे प्रसन्न हुए / आपकी तरफ उनका भक्तिभाव अत्यंत बढ गया / पूर्वमें जो वचन दे चूके थे, उसका स्मरण हो आया / उदयन मंत्री द्वारा सूरीश्वरजीको अपने पास बुलाए और चरणोंमें मस्तक रख कर कहा- भगवन् ! आपने जो जो उपकार, इस क्षुद्र प्राणी पर किये हैं, उनका बदला तो मैं अनेक जन्मों द्वारा भी नहीं दे सकता, परंतु इस समय, जो कुछ मुझे आपकी कृपासे मिला है, उसे खीकार कर, उपकारके अपार भारको कुछ हलका कर, इस सेवक को उपकृत कीजिए / इस राज्य और राजाके आप ही स्वामी है। यह तन, यह मन और यह धन सब आप ही की सेवामें समर्पित है / इस अनुचरकी यह तुच्छ प्रार्थना स्वीकार करें।" राजाके इन नम्र वाक्योंको सुन कर सूरीश्वर अत्यंत आनंदित हुए / मनोरथोंके सफल होनेका समय सामने आया हुआ देख, क्षण भर, आनंदके अपार सागरमें, निमग्न हो गये। आप उत्कृष्ट योगी थे / अत्यंत निःस्पृही थे। महा दयालु थे / केवल परोपकारके निमित्त ही आपका अवतार हुआ था। आपको न धनकी जरूरत थी, न मानकी / न राज्यकी इच्छा थी न पूजाकी। अभिलाषा थी आपको केवल संसार मात्रके प्राणियोंको अभय दान दिलाने की; और परमात्मा महावीरके पवित्र शासनकी वैजयंती पताकाको, इस भूमंडलमें उडती हुई देखनेकी / आपकी यह भव्य भावना, कल्पवृक्ष समान सर्व इच्छाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ और तत्पर, ऐसे महाराजाधिराज कुमारपाल देव द्वारा, पूर्ण होगी; ऐसा जान कर राजासे कहा-“राजन् ! भिक्षा मांग कर, लूखे सूके अन्न द्वारा उदरपूर्ति करने वाले, जंगलों और शून्य गृहोंमें भूमिमात्र पर पडे रहने वाले और केवल परमात्माका ध्यान धरने वाले हम योगियोंको, तुमारा राज्य तो क्या परंतु देवाधिपति महेंद्रका महाराज्य मी, तुच्छ सा प्रतीत होता है / हमारे ब्रह्मानंदके अनंत सुख आगे, समग्र संसारका वैभव भी सदमात्र ही प्रतीत होता है तो फिर, परिणाममें विरस ऐसे इस तुच्छ राज्यको ले कर हम क्या करें! हमने जो तुम्हारे ऊपर कुछ उपकार किया है वह खार्थसाधनके लिए नहीं, किंतु, भावी कालमें तुम्हारे द्वारा, जगत्का महान् उपकार होने वाला समझ कर, हमारा मुख्य कर्तव्य जो संसारकी सेवा करना है उसका पालन करनेके लिए, हमने तुम्हारी सहायता की है। पूर्व मुकृतके योगसे अब तुम्हें उत्तम संयोग मिले हैं, इससे, इनके द्वारा, संसारको मुख पहुंचा

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