Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith

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Page 139
________________ पुरावनाचार्यसंगृहीत ___ अथ पुण्यतत्त्वम् -- 42 [भेदम् ] येन जीवः सुखमनुभवति तत्सुखवेदनीयं पुण्यप्रकृतिः / 1 / उच्चैर्गोत्रपुण्यप्रकृत्या धन-बुद्धि-रूपादिरहितो लोके पूजां लभते / 2 / यया पुण्यप्रकृत्या मनुष्यत्वं लमते सा मनुष्यगतिः 13 / यया वृषभनासिकारजुकल्पया द्विसमयादिवक्रेण गच्छन् जीवो मनुष्यगतावानीयते सा मनुष्यानुपूर्वी / 4. एवं देवगति-५ देवानुपूर्वी / 6 / पञ्चेन्द्रियजातिः 7, औदारिकं शरीरं 8, तिर्यग्-मनुष्याणां वैक्रियमोपपातिक * लब्धिप्रत्ययं च 9, आहारक चतुर्दशपूर्वविदः कारणे स्यात् 10, तैजसं भुक्तानपरिणतितेजोलेश्याहेतुः ११इत्यादि पुण्यतत्त्वं ज्ञेयम् / पापतत्त्वम् 82 [भेदम् ], आश्रवतत्त्वम् 42 [भेदम् ], संवरतत्त्वम् 57 [मेदात्मकम् ]. 654. अथ राजन् ! निर्जरातत्त्वम् - निर्जरयति रसहान्या कर्मपुद्गलान् जीर्णान् करोति या सा निर्जरा / सा च द्विभेदा-सकामनिर्जरा 1 अकामनिर्जरा 2 च / तत्र अकामनिर्जरा सहनपरिणाममन्तरेण सकलचातुर्गतिकजीवानां " स्वयं परिपाकसमायातकर्मफलवेदनम् ; सकामनिर्जरा तु परिज्ञातकर्मविपाकनिर्जरणोपायानां कर्मक्षयार्थ सहनपरिणामवतां सर्वविरत-देशवितरतादीनाम् / सा द्वादशधा तपोरूपा४०१. अणसणमूणोयरिया वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ // तत्रानशनं द्विधा-इत्वरम् 1, यावत्कथिकं च 2 / तत्रेत्वरं चतुर्थषष्ठाष्टमादियावत्संवत्सरं तपः। यावत्क॥ थिकं तु भक्तपरिज्ञा १-इंगिनी 2- पादपोपगम 3 रूपं त्रिधा / ऊनोदरता द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / 402. तत्र द्रव्यतः-कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडगपमाणमित्ताणं / जं ऊणत्तं कीरइ ऊणोयरिया उ सा दवे // 403. भावतः-कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ उ / भावेणोणोयरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं // - वृत्तिसंक्षेपो गोचराभिग्रहादिश्चतुर्दा / द्रव्यतः 1, क्षेत्रतः 2, कालतः 3, भावतश्च 4 / तत्र द्रव्यतो निर्लेपादि ग्राह्यम् / 404. उक्तं च-लेवडमलेवडं वा अमुगं दवं च अज घिच्छामि / अमुएण च दवेणं इय दवाभिग्गहो नाम // अट्ठ उ गोअरभूमी एलगविखंभमित्तगहणं च / सग्गामपरग्गामे एवइय घरा य खित्तंमि // . काले अभिग्गहो पुण आई मज्झे तहेव अवसाणे / अप्पत्ते सइ काले आई ठिइ मज्झ तइयंते // उक्खित्तमाइचरगा भावजुया खलु अभिग्गहा हुँति / गायंतो व रुयंतो जं देइ निसन्नमाई वा // ... रसः क्षीरदधिघृतादित्यागस्तपः / उक्तं च. 408. विगई विगईभीओ विगइगयं जो अ भुंजए साहू। विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ // कायक्लेशो वीरासनादिभेदाचित्रः / कायोत्सर्गादिसलीनता चतुर्धा४०९. इंदियकसायजोए पडुच संलीणयामुणेयवा। तस्य विवित्ता चरिया पन्नत्तापीयरागेहि। 406. . . . 407.

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