Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith
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________________ कुमारपालप्रतिबोध-संक्षेप 50. कुमारपालदिनचर्यावर्णनम् / तो पंच-नमुक्कार सुमरंतो जग्गए रयणि सेसे / चिंतइ अय दो वि हिय[२] देिव-गुरु-धम्म-पडिवति / / काऊण काय-सुद्धिं कुसुमामिस-बोच-विविह-पूयाए / पुजइ जिण-पडिमानो पंचहिं दंडेहिं वंदे // निचं पञ्चक्खाणं कुणइ जहासति सत्त-गुण-निलओ / सयल-जय-लच्छि-तिलओ तिलयावसरम्मि उवविसह। करि-कंधराधिरूढो समत्त-सामंत-मंति-परियरिओ / वचइ जिणिंद-भवणं विहि-पुष्वं तत्थ पविसेइ // बह-प्पयार-पूयाइ पूइउं वीयराय-पडिमाओ / पणमइ महि-निहिय-सिरो थुणइ पवित्तेहिं योत्तेहिं // गुरु-हेमचंद-चलणे चंदण-कप्पूर-कणय-कमलेहिं / संपूईऊण पणमइ पञ्चक्खाणं पयासेइ // गुरु-पुरओ उवविसिउं पर-लोय-सुहावहं सुणइ धम्मं / गंतूण गिहं वियरइ जणस्स विनत्तियावसरं // विहियग्ग-कूर-थालो पुणो वि घर-चेइयाई अञ्चेइ / कय उचिय-संविभागो भुंजेइ पवित्तमाहारं // भुत्तुत्वरं सहाए वियारए सह बुहेहिं सत्थत्यं / कइया वि निव-नियुत्तो कहइ कहं सिद्धवाल-कई // [अत्र कविसिखपालकथिता अपभ्रंशभाषाबद्धा जीव-मना-करण-संलापकथा ज्ञातव्या] बन-दिणेऽन्न-विबुहेण य जंपियं देव किंपि पुच्छिस्सं / रन्ना भणियं पुच्छसु बुहो पयट्टो मणिउमेव // [भत्र कश्चिदन्यविबुधकथितं विक्रमादित्यकथानकं विश्वेयम् / / तो राया बुहवग्गं विसजिउं दिवस-चरम-जामम्मि / अत्थाणी मंडव-मंडणम्मि सिंहासणे ठाइ // सामंत-मंति-मंडलिय-सेडिपमुहाण दंसणं देइ / विनत्तीओ तेर्सि सुणइ कुणइ तह पडीयारं // कय-निधिवेय-जण-विम्हियाइं करि-अंक-मल्ल-जुद्धाई / रजहिइ ति कइया वि पेच्छए छिन्नवंछो वि / / भट्ठमि-चउदसि-वजं पुणो वि भुंजइ दिणहमे भाए / कुसुमाइएहिं घर-चेइयाइं अचेइ संझाए / निसि निविसिऊण पट्टे आरत्तिय-मंगलाई कारवइ / वारवहू-निवहेणं मागह-गण-गिजमाण-गुणो // 'तो निरं काउमणो मयण-भुयंगम-विस-प्पसम-मंतं / संथुणइ थूलभद्द-प्पमुह-महामुणि-चरियमेवं // [.अत्र स्थूलभद्रकथाऽनुसन्धेया। नमस्कारमाहात्म्ये च नन्दनकथा वाच्या।] परमेष्ठिनमस्कारं स्मरन् भूपतिरभ्यधात् / नमस्कारस्य माहात्म्यं दृष्टप्रत्ययमेव मे // तथा हिखयं सकलसैन्येन दिग्यात्राः कुर्वतोऽपि मे / असिध्यत [यतो] नार्थोऽनर्थः प्रत्युत कोऽप्यभूत् // 5.. 'अधुना तन्नमस्कार स्मरतो मम शत्रवः / वणिजैरपि जीयन्ते दण्डेशैरम्बडादिभिः // खचक्र परचक्र वा नानथै कुरुते क्वचित् / दुर्भिक्षस्य न नामापि श्रूयते वसुधातले // ततस्तं संस्मरत्नेवं निद्रां भजति पार्थिवः / रात्रिशेषे तु जागर्ति मागधोक्तैर्जिनस्तवैः // ततः पञ्चनमस्कारधर्मस्मरणपूर्वकम् / वन्दित्वा पार्थिवो देवान् भवोद्विमोऽग्यधादिदम् // हहा / विषयपकौषममस्तिष्ठति मादृशः / धन्यो दशार्णभद्रः स राज्यं तत्याज यः क्षणात् // [अत्र दशार्णभद्रकथानकमनुसन्धेयम्।] एवं कुर्वन्नहोरात्रकृत्यानि परमार्हतः। कुमारपालदेवोऽयं राज्यं पालयति क्षितौ // 15 सिष्टार्थोऽयं पाठः / जिनमण्डनगणिविरचित-कुमारपालप्रबन्धे तु 'चिंतह य दोवि हियए' (पृ. १०.प्र.) इत्येवपक्षम्यते।

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