Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith

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Page 21
________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य अर्थात्-प्रतिपक्षियोंके सन्मुख बडी गर्जना करके कहता हूं कि, जगत्में वीतरागके सदृश तो कोई अन्य देव नहीं है और अनेकांत (स्याद्वाद-जैन ) धर्मके सिवा कोई सत्य तत्व नहीं है / निःपक्षपातता हम ऊपर कह आये हैं कि, आपकी जो धार्मिक श्रद्धा थी वह पक्षपातपूर्ण न हो कर, तास्त्रिकी थी / इस का प्रमाण, सिद्धराजने जब आपको यह पूच्छा था कि-'जगत्में कौनसा धर्म संसारसे मुक्त करनेवाला है ?? इसके उत्तरमें आपने जो ब्राह्मण पुराणान्तर्गत संखाख्यानका अधिकार सुनाया और धर्मगवेषणाके लिए जो निःपक्षपात भाव प्रकट किया वह आपके जीवनके निष्कर्षका एक असाधारण उदाहरण है / इस प्रसंग ने आपके जीवनको अत्यंत महान् सिद्ध कर दिया है। यदि आप, उस समय इस प्रकारका मध्यस्थता सूचक जवाब न दे कर, जिस धर्मके ऊपर आपका पूर्ण विश्वास था, उसीका नाम लेते, तो आपको कौन रोकने वाला था ! ऐसा विद्वानोंमें कौन था जो आपके कथनको खंडित कर सकता! किन्तु आप यह अच्छी तरह जानते थे कि जो भव्य और निःपाक्षपाती धर्मेच्छु होगा उसको तो, गवेषणा करने पर, निस्संदेह जैनधर्म सत्य धर्म ही प्रतीत होगा / क्यों कि आपने भी खयं जैनधर्मको सत्यताके कारण ही खीकार किया था। प्रो. पीटरसन इस विषयमें लिखते हैं कि-"सिद्धराजको धर्मसंबंधी जो शंकायें होती थीं, उनको, वह अन्य आचार्योंकी माफक, जैनाचार्य हेमचंद्रको मी पूछता था, और जब, अन्य आचार्य, राजाके मनको संतुष्ट कर सके ऐसा जवाब नहीं दे सकते थे, तब हेमचंद्र अनेक दृष्टांतों द्वारा, ऐसा रमणीय उत्तर देता था कि, जिससे सिद्धराजका मन खुश खुश हो जाता था।" एक समय सिद्धराजके मनमें यह शंका हुई कि 'जगत्में मनुष्यका स्थान कैसा है तथा मनुष्यका उद्देश्य क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ?" जुदा जुदा अनेक धर्माचायोंके पाससे उसने इसका जवाब मांगा परंतु किसीसे संतोषकारक जवाब न दिया गया। सब ही ने उत्तर देनेके समय, अपना मत श्रेष्ठ बतला कर, अन्य धर्मोकी निन्दा की। अंतमें सिद्धराजने निराश हो कर, हेमचंद्राचार्यसे इसका जवाब मांगा, तब, उसने एक बहुत अच्छा दृष्टांत दे कर सिद्धराजकी शंकाका निराकरण किया ।...........सिद्धराज इस जवाबको सुन कर बहुत खुश हुआ।" हेमचंद्राचार्यके इस निष्पक्षपातपन पर प्रो. पीटरसन स्वयं बडा मुग्ध हुआ था। सिद्धराजका अवसान इस प्रकार, महाविद्वान् श्रीहेमचंद्राचार्यके सहवाससे, सिद्धराजके मनमें, जैनधर्मके विषयमें, बहुत कुछ आदर उत्पन्न हो गया था / यद्यपि, स्पष्ट रूपसे उसने अपने कुलधर्मका त्याग नहीं किया था, तथापि, जैनधर्मकी तरफ उसका भक्तिभाव विशेष हो गया था। वह हेमचंद्राचार्यको बडी आदरकी दृष्टि से देखता था / 'सिद्ध-हैमशब्दानुशासन' नामक महान् व्याकरण प्रन्थ आपने इसीके कथनसे बनाया था। यह राजा बडा न्यायी और विद्याविलासी था। 49 वर्ष तक राज्यभार वहन कर संवत् 1199 में, इसने देह छोड दिया। हेमचंद्राचार्यका विहार जब तक, सिद्धराज जीवित था तब तक, बहुत कर के आपका निवास, पाटन ही में रहता था। यद्यपि शामि, मुनिजनोंको चिरकाल पर्यंत, एक स्थानमें रहनेका निषेध किया है, परंतु आप उत्सर्ग - अपवाद और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके पूर्ण ज्ञाता थे / अतः आपने, अनेक प्रकारसे जैन धर्मकी प्रभावना होनेका महान् लाभ समझ कर, राजाके उपरोधसे, अधिक समय तक, पाटनमें ही रहना स्वीकार किया था। गुरु महाराज और जैन संघकी मी यही इच्छा थी। जब सिद्धराजका देहपात हो गया. तब आपने थोडे समयके लिए, पाटन छोड दिया और अन्य प्रदेशोंमें विचरण किया। इस विहारकालमें आपने जैनधर्मकी बहुत प्रभावना की / हजारों मनुष्योंको जैनधर्मका

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