Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith

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Page 19
________________ फुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वकम्य दीक्षाग्रहण चंदगच्छके मुकुट खरूप श्रीदेवचंद्रसरिने अपने ज्ञानबलसे, इस व्यक्तिद्वारा जैन धर्मका महान् उदय होने वाला जान कर, नव वर्ष वाले इस छोटेसे बच्चको ही, संवत् 1154 में चारित्ररूप अमूल्य रन सौंप दिया। पाठकों को यह पढ कर आश्चर्य होगा कि इतना छोटा बच्चा साधुपनेकी जिम्मेदारियोंको क्या समझता होगा और साधुजीवनकी कठिनाईयोंको कैसे सहन कर सकता होगा! तथा बहुतसे अज्ञान मनुष्य इस बात पर उपहास्य ही करेंगे / परंतु यह एक उनकी अज्ञानजन्य भूल ही समझना चाहिए / महापुरुषोंका चरित्र लौकिक न हो कर लोकोत्तर होता है; यह अवश्य ध्यानमें रखना चाहिए। चाहे वे वय और शरीरसे भले ही छोटें हों, परंतु सामर्थ्य उनका बहुत बड़ा होता है। वे अपने समकालीन लाखों मनुष्यों जितनी शक्ति, अकेले ही धारण करे रहते हैं। जगत्में उनकी पूजा अपूर्व गुणोंके कारण ही होती है; वय या शरीरके निमित्तसे नहीं / 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः / यदि जगत्का इतिहास ध्यानसे देखा जाय तो इस बातके प्रमाणभूत बहुत से उदाहरण मिलेंगे / भारतवर्ष में अनेक ऐसे महापुरुष हो गए हैं, जिन्होंने, साधारण जनसमाजकी धर्मचक्षुमें दीख पडने वाली बाल्यावस्थामें ही, अपूर्व कार्य किए हैं। श्रीशंकराचार्य तथा महाराष्ट्रीय भक्तशिरोमणि ज्ञानदेव जैसे समयं पुरुषों ने 15-16 वर्ष जैसी अल्प वय में ही, गहनतत्त्वपूर्ण भाष्य लिख डाले थे, कि जिनको समझनेके लिए मी साधारण मनुष्योंकी तो आयु ही खतम हो जाती है। जैनाचार्य श्रीअभयदेवरि, सोमसुंदरसूरि आदि अनेक पुरुषोंने बाल्यावस्था में ही बडे बडे प्रतिष्ठित आचार्यादि पद प्राप्त किये थे। प्रो. पीटरसन, इस अल्पवयमें दीक्षा देने वाली बात ऊपर लिखते हैं कि-"देवचंद्रने इस छोटेसे बच्चेको दीक्षा दे कर अपना शिष्य बना लिया-यह आश्चर्य जैसा मालूम देगा, परंतु इसमें आश्चर्य होने का कोई कारण नहीं है / इस प्रकारकी प्रपा, इस देश (भारतवर्ष ) में तथा अन्य देशों में, प्राचीन कालसे चली आ रही है, और चल रही है।.........पुस्त उम्र वालेको ही साधु बनाना चाहिए, यह नियम है अच्छा, परंतु अन्य समी धर्मोमें देखा जायगा तो इस तरह अल्पवय वाले ही, बहुतसे नवीन भाचार्य पसंद किए गए मालूम देंगे।" विद्याभ्यास . पूर्व जन्मके सुसंस्कार और क्षयोपशमकी प्रबलताके कारण थोडे समयमें ही, हेमचंद्र मुनिने सर्व शाखाका अध्ययन कर, पूर्ण पांडिल्य प्राप्त कर लिया। स्मरण-शकि और धारणा-शकि बहुत तीन होनेसे अल्प परिश्रमसे ही अपार ज्ञान संपादन कर लिया। विद्याभिरुचि अत्यंत तीन होने के कारण भगवती सरखती देवी प्रसन्न हो कर, सयं वर प्रदान करने के लिए आई थी! जितेन्द्रियता आपका आत्मसंयमन और इंद्रियदमन अल्पत उत्कट था। इतनी अल्प वयमें, इस प्रकारकी वैराग्य इचिका अस्तित्व होना, अत्यंत अश्चर्यकारक है। संसार भरमें, सबसे कठिन पास्य नियम ब्रह्मचर्य है। जिनका वर्णन रोमांच खडे हो जाय ऐसे घोर तपोंको, असंख्य वर्षों तक तपने काले बडे बडे योगी मी, इस दुष्कर नियमकी कठोर परीक्षा में, अनुत्तीर्ण हो गए हैं। उसी ब्रह्मचर्यको, पूर्ण रूपसे, हेमचंद्र मुनिने किस तरह धारण किया था, यह इस चरित्रांतर्गत पधिनी (पृष्ट 25) वाले वृत्तांतके पढनेसे, अच्छी तरह बात हो जाता है। धन्य है, इस महापुरुषकी सत्त्वशीलताको। पूर्ण ब्रह्मवृत्तिको / निर्विकार दृष्टिको ! और उत्कृष्ट योगिताको! अहो ! कितनी जितेन्द्रियता ! कैसी मनोगुप्ति ! कितना बडा दृढ संकल्पबल ! सच है इस प्रकारकी सचरितताके विना अद्भुत विधायें का प्राप्त हो सकती है, और जगत्का भला मी कहांसे हो सकता है ! इस महात्माके ब्रह्म तेजसे कोयलोंका ढेरे मी सुवर्णमय हो जाता पा! (पृष्ठ 23)

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