Book Title: Kumarpal Charitra Sangraha
Author(s): Muktiprabhsuri
Publisher: Singhi Jain Shastra Shikshapith

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Page 18
________________ कुमारपालचरित्रसंग्रह-प्रस्तावनादि वक्तव्य कनिंगहाम (General Cunnigham), के 'हिंदुस्थानका प्राचीन भूगोल' (The Ancient Geography of India) वाली हकीकतको पुष्ट करती है / जुदा जुदा देशोंको जीतना, विद्या-कला-कौशल्य आदिका देशमें प्रचार करना, नीति और धर्ममय जीवन बितानेके लिए प्रजाको अनेक तरहसे प्रवृत्त करना, हिंसा, व्यसन आदि अधःपात कराने वाले बालोंका सर्वथा नाश कराना और सोमेश्वर, शत्रुजयादि विविध तीर्थोका जीर्णोद्धार कराना व अनेक नवीन मंदिरों का बनवाना-इत्यादि विविध विषयोंका मनोहर विवेचन इस पुस्तकमें किया गया है। अधिक क्या ! उस समयकी राजकीय, धार्मिक और सामाजिक स्थितिका एक उत्तम चित्ररूप यह प्रबंध है। इसी ही 'कुमारपालप्रबंध' के ऊपरसे लेखकने (ख० मुनि ललितविजयजीने) संक्षेपमें, यह 'कुमारपालचरित' विशेष कर राजपूताना और पंजाबादि देशवासी जैनी भाईयोंके हितार्थ हिंदीमें लिखा है। इस पुस्तकमें दो ऐसे महान् पुरुषोंका वर्णन है कि जिनकी समानता करने वाले उनके बाद, फिर इस भारतवर्षमें कोई हुए ही नहीं / इन पुण्य प्रभावकोंके संपूर्ण गुणोंका वर्णन तो साक्षाद् बृहस्पति भी करनेको समर्थ नहीं है, परंतु 'शुमे यथाशक्ति यतनीयम्' इस सूक्तिके अनुसार प्रबंधके मूल लेखक (श्रीजिनमंडनगणि) ने, इन महात्माओं के प्रति अपना भक्तिभाव प्रकट करनेके लिए, पूर्व ग्रंथों द्वारा तथा वृद्ध जनोंके मुख द्वारा, जो कुछ वृत्तांत श्रवणगोचर हुआ उसको भावी प्रजाके हितार्थ पुस्तक रूपमें लिख कर, अपनी परोपकार वृत्ति प्रकट की / इन प्रातःस्मरणीय महर्षि और राजर्षि के आदर्श जीवनका एक क्षण भी ऐसा नहीं है कि जिसका जानना अनुपयुक्त हो, परंतु पूर्वकालीन भारतीयोंका, आधुनिकोंकी तरह इतिहास तत्त्वकी तरफ विशेष लक्ष्य न होने से, इन महात्माओंके समग्रजीवनचरित्ररूप अमृतका पान कर, हम अपनी आत्माको संतुष्ट नहीं कर सकते / इस प्रबंधमें जिन बातोंका उल्लेख है, वह केवल खास खास विशेष घटनाओंका ही समझना चाहिए। ___ यहां पर हम यदि, पाठकोंके सुबोधार्थ इन महापुरुषोंके पवित्र चरित्रका कुछ सारांश लिख देवें तो, संभव है विशेष उपयुक्त होगा। महर्षि श्रीहेमचंद्राचार्य स्तुमत्रिसंध्यं प्रभुहेमसूरेरनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् / अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुळधित प्रबोधम् // -श्रीसोमप्रभाचार्य। विक्रम संवत् 1145 की कार्तिकी पूर्णिमाको, सकलसत्वसमूहको अद्वितीय आह्वाद उत्पन्न करने वाला, सांसारिक विषयोंके आंतरिक दाहसे संतप्त आत्माओंको शांति पहुंचाने वाला, सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप बलौकिक रनोंको अपने गर्भ में रखने वाले पवित्र जैनधर्मरूप महासागरकी, आनंदोत्पादक भगवती अहिंसाखरूपिणी / तरंगोंको अखिल भूमंडल में फैलाने वाला, भव्यजनरूप कमनीय कुमुदोंको विकखर करने वाला और अपनी अपूर्व बालज्योत्सा द्वारा, अज्ञानांधकारसे आछन्न भारत धराको उज्वल करने वाला, तथा जिसका प्रकाश शाश्वत रहने पाला / ऐसे लोकोत्तर चंद्रके समान, इस महामुनींद्र हेमचंद्रका, प्राचीदिक्सदृश पूजनीया देवी पाहिनीके पवित्र गर्मसे अवतार हुआ था / 'जगत में, जब जब धर्मकी कोई विशेष हानि होने लगती है तब तब, उसकी रक्षा करने के लिए अवश्य ही किसी महाज्योति-युगप्रधानका अवतार होता है। इस प्राकृतिक नियमानुसार, जब जैन धर्ममें विशेष क्षीणता पहुंचने लगी, परस्पर सांप्रदायिक झगडोंकी जड जमने लगी, विपक्षिओंकी ओरसे अनेक प्रकारके प्रहार पड़ने लगे और जैनोंका आत्मसंयम शिथिल होने लगा, तब, समाज कोई न कोई ऐसी व्यक्तिकी अपेक्षा कर रहा था कि जो अपने सामर्थ्य द्वारा, जैनधर्म पर घिरे हुए, इस विपत्ति रूप बादलका संहार करे / समाजके इस मनोरषको भगवान् हेमचंद्रने पूर्ण किया। इस प्रचंड गति वाले महान् दिव्य वायुके सामर्थ्यसे वह मेघाडंबर उड गया /

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