________________
२९
विषयानुक्रमणी
द्वितीयः प्रत्ययपादः ८. प्रत्यय संज्ञा तथा 'सन्' प्रत्यय
११७-४४ [प्रत्यय तथा प्रकृति पदार्थ, उपाधि के २ भेद, लोकोपचार के आधार पर प्रत्यय तथा प्रकृति संज्ञाएँ, २ प्रकार की प्रकृति, प्रधान में कार्यसम्प्रत्यय, प्रत्ययसंज्ञा के विषय में आशङ्का, कुलचन्द्र आदि आचार्यों के विविध विचार, वृत्तिकार दुर्गसिंह द्वारा १० विभक्तियों के १८० प्रत्ययों का संग्रह, एतदर्थ पाणिनि के १८ तिङ् प्रत्यय, २९ आदेश तथा ५ आगम । 'गोपथब्राह्मण-ऋक्तन्त्र' आदि प्राचीन ग्रन्थों तथा 'मुग्धबोधव्याकरण-अग्निपुराण-शब्दशक्तिप्रकाशिका' आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में प्रत्यय का प्रयोग, केवल प्रत्यय का प्रयोगाभाव, वरवधूसमागम की तरह प्रत्यय-प्रकृतियोग गुपादि धातुओं से अर्थविशेष में 'सन्' प्रत्यय का विधान, 'मीमांसते' इत्यादि में अभ्यासगत इकार को दीर्घ, लौकिकी विवक्षा के अतिक्रमण का अभाव, लौकिक विवक्षा के अनुसार 'नदी कूलं पिपतिषतीव, श्वा मुमूर्षतीव' आदि प्रयोग, गुणीभूत क्रिया द्वारा भी साधनसम्बन्ध का अनुभव तथा सन्नन्त से सरूप सन् प्रत्यय का अभाव] ९. 'यिन-काम्य-आयि-इन-य-आय' प्रत्यय
१४४-९८ [आत्मेच्छा अर्थ में 'यिन' प्रत्यय, उपचार से वाक्यैकदेश की भी वाक्यरूपता, पदसमुदायरूप वाक्य, 'काम्य' प्रत्यय का अविभक्तिक निर्देश, मन्दमतिबोधार्थ, सूत्र की विचित्र रचना से बोधलाभ, मैत्रेयरक्षित आदि आचार्यों की प्रासङ्गिक विषयसम्बन्धी मान्यताएँ, 'उपमान- आचार' आदि शब्दों के अर्थ, साध्यसाधनभाव का इष्टि के अनुसार व्यवहार, कातन्त्रीय 'यिन्' आदि प्रत्ययों के लिए पाणिनीय 'क्यच्-काम्यचक्यङ्-णिच्-यङ्-आय' प्रत्ययों का विधान, अन्वाचयशिष्ट चकार, कातन्त्रीय 'यण' प्रत्यय में णकार का अगुणार्थ होना, कण्ड्वादिगणपठित धातुपाठ, प्रयोक्ता के अनुसार विशेषणविशेष्यभाव का प्रयोग, ‘इन्' प्रत्यय की 'कारित' संज्ञा, पूर्वाचार्यकृत 'कारित' संज्ञा का सुखावबोधार्थ होना, लौकिक विवक्षा के अनुसार शब्दप्रयोग, सभी क्रियाओं का हेतुमती होना, कर्ता की हेतुसंज्ञा, अन्य गणों में भी पठित धातुओं का चुरादिगण में समावेश, गणनिर्दिष्ट कार्यों की अनित्यता, प्राप्त्यर्थक 'भू' धातु के आत्मनेपदप्रयोग
याचितारश्च नः सन्तु दातारश्च भवामहे ।
आक्रोष्टारश्च नः सन्तु क्षन्तारश्च भवामहे ॥ गणनिर्दिष्ट कार्यों के अनित्य होने से ‘इन्' प्रत्यय की वैकल्पिक प्रवृत्ति, चुरादिगण के अन्तर्गत ४२ धातुओं वाले युजादि गण का पाठ आवश्यक, स्वर तथा