Book Title: Kashay Author(s): Hempragyashreeji Publisher: Vichakshan Prakashan TrustPage 12
________________ कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन ८ अपनी स्वार्थ-साधना का लक्ष्य है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया- तीनों द्वेष रूप हैं, क्योंकि माया भी दूसरे के विघात का विचार ही है। केवल लोभ अकेला रागात्मक है, क्योंकि उसमें ममत्वभाव है। किन्तु ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वेषरूप है, शेष कषाय-त्रिक को न तो एकान्त रूप से राग-प्रेरित कहा जा सकता है, न द्वेष-प्रेरित। राग-प्रेरित होने पर वे राग-रूप हैं और द्वेष-प्रेरित होने पर द्वेषरूप होती हैं। फिर भी यह तो सत्य ही है कि ये चारों कषाय मूलत: व्यक्ति की राग-द्वेषात्मक वृत्तियों की ही बाह्य अभिव्यक्तियाँ हैं। वस्तुतः व्यक्ति में निहित वासना के तत्त्व अपनी विधेयात्मक अवस्था में राग और निषेधात्मक अवस्था में द्वेष बन जातो हैं और ये राग-द्वेष के तत्त्व ही अपनी आवेगात्मक अभिव्यक्ति में क्रोध, मान, माया और लोभ अर्थात् कषाय बन जाते हैं। इस प्रकार कषाय राग-द्वेष की बाह्य अभिव्यक्ति है और राग-द्वेष कषायों के अन्तरंग बीज हैं। राग-द्वेष के अभाव में कषायों की सत्ता नहीं है। कषायें राग-द्वेष रूपी युगल से ही जन्म लेती हैं, उन्हीं से सम्पोषित होती हैं और इनके मरने पर मर जाती हैं। कषाय और मिथ्यात्व - कषायों की उपरोक्त चर्चा के प्रसंग में हमने यह देखा कि कषायों का जन्म राग-द्वेष की वृत्तियों से होता है। पुनः यदि हम यह विचार करें कि कषायों को जन्म देने वाली ये राग-द्वेष की वृत्तियाँ किसके आधार पर जन्म लेती हैं और सम्पोषित होती हैं, तो इस सम्बन्ध में उत्तराध्ययनसूत्र का स्पष्ट निर्देश है कि राग-द्वेष और कषायों का मूलभूत कारण मोह है। इसे अज्ञान या अविवेक दशा भी कहा जा सकता है। किन्तु इससे आगे बढ़कर जब यह पूछा जाए कि यह मोह, अज्ञान या अविवेक क्यों उत्पन्न होता है या किसके द्वारा उत्पन्न होता है, तो हमें कहना पड़ता है कि इसका मूल कारण मिथ्यात्व ही है। वस्तुत: जैन दर्शन में यह एक प्रमुख दार्शनिक समस्या है कि यदि कषायों का कारण मोह या मिथ्यात्व है, तो मोह या मिथ्यात्व का कारण क्या है? सम्प्रति इन प्रश्नों को लेकर जैन चिन्तकों में एक विवाद छिड़ा हुआ है, मिथ्यात्व और कषाय में कौन प्रमुख है और कौन गौण है? यह प्रश्न आज निश्चयनय पर अधिक बल देने वाले कानजी स्वामी के समर्थक पंडितों एवं व्यवहारनय की उपेक्षा नहीं करने वाले पूज्य आचार्य विद्यासागरजी के समर्थकों के बीच विवाद १. विशेषावश्यकभाष्य, २६६८-२६७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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