Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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प्रस्तावना
(१) क्रमांक (७१) १२४ संज्ञक प्रथम मूलगाथा द्वारा तीन बातोंको जाननेकी जिज्ञासा की गई है । (१) प्रथम जिज्ञासा द्वारा नपुंसकवेदकी क्षपणा करनेवालेके पूर्वबद्ध कर्मोंकी स्थिति कितनी होती है यह पृच्छा की गई है । (२) द्वितीय जिज्ञासा द्वारा पूर्वबद्ध कर्मोंका अनुभाग कितना होता है यह पृच्छा की गई है। तथा (३) तीसरी जिज्ञासा द्वारा अन्तरकरण करनेके पूर्व किन कर्मोंकी क्षपणा हो गई है और किन कर्मोंकी होती है यह पृच्छाकी गई है।
यह प्रकृतमें प्रथम मूल सूत्रगाथा है। इसको पाँच भाष्य गाथाएँ हैं। भाष्य गाथा और प्ररूपणा गाथा इन दोनों शब्दोंका अर्थ एक है। अन्तर करनेके अनन्तर समयसे इस जीवकी अन्तरद्विसमयकृत (अंतरकरणसमत्तीदो विदियसमयम्हि पृ. २२०) संज्ञा है। इसी प्रकार नोकषायोंकी प्ररूपणा करनेवाला जीव संक्रामकप्रस्थापक कहलाता है। यहाँ (७२) १२५ संज्ञक पहली भाष्यगथाद्वारा स्थिति सत्कर्मका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया गया है कि नोकषायोंकी प्ररूपणाका प्रारम्भ करनेवाले जीवके मोहनीय कर्मकी प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति ये दो स्थितियां होती हैं और उनके मध्गमें कुछ कम अन्तमुहूर्त प्रमाण अन्तर होता है।
(७३) १२६ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होनेके एक समय कम एक आवलिकालके जानेपर स्वोदयरूप जिन मोहनीय प्रकृतियोंकी यह जीव क्षपणा कर रहा है वे प्रथम और द्वितीय दोनों स्थितियों में पाये जाते हैं। किन्तु मोहनीयके जिन कर्मोंकी परोदयसे क्षपणा कर रहा है उनकी उस समयसे लेकर मात्र द्वितीय स्थिति ही पाई जाती है। उदाहरणार्थ जो जीव पुरुषवेदके साथ क्रोध संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा है तो उसके अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होनेके समयसे लेकर एक समय कम एक आवलि काल जानेपर इन दोनों कर्मों की प्रथम और द्वितीय दोनों स्थितियां पाई जाती हैं। कारण कि इनकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण होती है और शेष ११ प्रकृतियोंकी उस समयसे मात्र द्वितीय स्थिति ही पाई जाती है। कारण कि इनकी प्रथम स्थिति एक आवलि प्रमाण होनेसे इस समय तक वह गल चुकी होती है। इसी प्रकार विवक्षित एक वेद और विवक्षित एक संज्वलन कषायको मुख्य कर समझ लेना चाहिये।
(७४) १२७ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा द्वारा सत्तामें स्थित कर्मोंकी स्थिति और अनुभागविषयक विशेषताका कथन करते हुए यह बतलाया गया है कि इस जीवके जो कर्म सत्तामें स्थित हैं उनका स्थितिसत्त्व न तो जघन्य ही होता है और न उत्कृष्ट ही होता है । किन्तु अजधन्यअनुत्कृष्ट होता है । इसी प्रकार साता वेदनीय, प्रशस्त नामकर्म प्रकृतियां और उच्चगोत्र इनका अनुभागसत्त्व आदेश उत्कृष्ट होता है। विशेष स्पष्टीकरण मूलमें देखिये।
(७५) १२८ संख्याक चौथी भाष्यगाथा द्वारा उन प्रकृतियोंके विषयोंमें कहा गया है जिनकी यह जीव पहले ही क्षपणा कर आया है। उनका नाम निर्देश मलमें किया ही है। इस भाष्यगाथामें जो संछोहणा शब्द आया है सो उसका अर्थ सर्व संक्रमके प्राप्त होने तक परप्रकृति संक्रम है।
- (७६) १२९ संख्याक पाँचवीं भाष्यगाथा द्वारा पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मके साथ छह नोकषायोंकी क्षपणा अर्थात् परप्रकृतिरूप संक्रमके होनेपर नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीय कर्म इन तीन अघाति कर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यात बर्षप्रमाण होता है तथा ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण होता है यह स्पष्ट किया गया है।
(२) (७७) १३० संख्याक मूल गाथामें ये तीन अर्थ निबद्ध हैं-प्रथम अर्थ है कि संक्रामक प्रस्थापक यह जीव अन्तर करनेके अनन्तर समयमें प्रकृति आदिके भेदसे किन कर्मोको बांधता है।