Book Title: Kasaypahudam Part 07
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपस विहत्तीए कालपरूवणा
बहुओ ति तेण आउअबंधे चरिमसमयअपारडे चैव उकस्ससामित्तं होदि ति तदो आणाकणिदाए णिण्णयाभावादोत्थपं काऊण वक्खाणेयव्वं । उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । णवरि अणताणु० चक्क० जह० एगसमओ । कुदो १ चडवीससंतकम्मिय व समसम्मादिद्विम्मि सासणं गंतून अनंताणुबंधिसंतमुप्पाइय विदियसमए निष्पिलिदम्मि तदुवलंभादो । उक्क० तं चैव । सम्मत्त - सम्मामि० उक्क० पदे० जहण्णुक० एगस० । अणुक० ज० एग०, उक० तेत्तीस सागरोवमाणि । तिन्ह वेदाणमुक० पदेस० जहण्णुक्क० एस० । अणुक्क० जह० दसवस्ससहस्सा णि समयुणाणि, उक्क० तेतीसं सागरोवमाणि ।
काल में होनेवाले सञ्चयसे आयुबन्धके काल में प्रदेशोंका क्षय बहुत होता है इसलिए आयु बन्धके प्रारम्भ होने के पूर्व अन्तिम समय में ही अर्थात् आयुबन्ध प्रारम्भ होनेके अनन्तर पूर्व समय में उत्कृष्ट स्वामित्व होता है । अतएव जिनाज्ञाका निर्णय न होनेसे इस विषयको स्थगित करके व्याख्यान करना चाहिए ।
उक्त प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशमसम्यग्दृष्टि नारकी जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सत्वको उत्पन्न करके दूसरे समय में अन्य गतिमें चला जाता है उसके एक समय काल पाया जाता है । तथा उत्कृष्ट काल वही है । अर्थात् तेतीस सागर ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है।
विशेषार्थ -- सामान्य से नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सातवें नरक में आयुबन्धसे पूर्व अन्तिम समय में होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है तथा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके बाद नरकभवमें जो अन्तर्मुहूर्त काल शेष बचता है वह इन कर्मों की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल है और इसका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर उस नारकीके होता है जिसके उस पर्याय में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति नहीं होती। यही कारण है कि उक्त कर्मोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । मात्र अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है, इसलिए कारण सहित इस कालका निर्देश अलग से किया है । यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके जघन्य कालका निर्देश करके 'उक्क० तं चेत्र' कहकर उत्कृष्ट काल भी कह दिया है पर इससे यह मिथ्यात्व की अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके उत्कृष्ट काल से अलग है ऐसा नहीं समझना चाहिए, अन्यथा 'तं चैव' पद देनेकी कोई सार्थकता नहीं थी । सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति उत्कृष्ट स्वामित्व के अनुसार एक समय के लिए होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो जीव अपनी-अपनी उद्वेलनाके अन्तिम
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