Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 16
________________ ( १० ) अनन्तानुबन्धीमान आदि तीनकी जघन्य स्थिति की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिवालेके चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । अप्रत्याख्यानावरण मान आदि तोन और प्रत्याख्यानावरण चतुष्ककी नियमसे जघन्य स्थिति होती है । इसी प्रकार इन सात कषायोंकी जघन्य स्थितिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेदको जघन्य स्थितिवालेके सात नोकषाय और तीन संज्वलनोंकी नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी स्थिति होती है और लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिवालेके इसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिवाले के तीन संज्वलनोंकी अजघन्य संख्यातगुणी स्थिति होती है और लोभ संज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । हास्यको जघन्य स्थितिवालेके तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी अजघन्य संख्यातगुणी स्थिति होती है और लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । तथा पाँच नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है । इसी प्रकार पाँच नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालेके दो संज्वलनकी अजघन्य संख्यातगुणी और लोभसंज्वलनकी अन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालेके मायासंज्वलनकी अजघन्य संख्यातगुणी और लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है । मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिवाले के लोभसंज्वलनकी अजघन्य असंख्यातगुणी स्थिति होती है। लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिवालेके अन्य प्रकृतियाँ नहीं होतीं । भाव - मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है । अल्पबहुत्व - सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव थोड़े हैं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यात मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिवाले अनन्तगुणे है । कारण स्पष्ट है । जघन्यकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिवाले सबसे थोड़े हैं, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके अन्तिम समय में मोहनीयको जघन्य स्थिति होती है । इनसे अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा यहां स्थिति अल्पबहुत्वका विचार किया है जिसका ज्ञान अद्वाच्छेदसे हो सकता है, इसलिएयह वह नहीं दिया जाता है । इस प्रकार कुल तेईस अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर स्थितिविभक्तिका विचार करके आगे भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थितिसत्कर्मस्थान इन अधिकारोंका अवलम्बन लेकर विचार करके स्थितिविभक्ति समाप्त होती है । इन अधिकारोंकी विशेष जानकारीके लिए मूलग्रन्थका स्वाध्याय करना आवश्यक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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