Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 22
________________ मनोज्ञान्नपानवस्त्राभरण - शुभ-शरीरादि- द्रव्यैः उत्तम - विमानधवल-गृहादि- दिव्यक्षेत्रः शीतोष्णादिरहितसाम्यकालेन उपशमपरिणार्मेन च देवगत्यादौ पुण्यवतां यत् कर्म सुखं करोति तत् सातावेदनीयं । यदुदयादात्मा नरकगत्यादौ तीव्रं दुखं लभते विषकंटाकाद्यनिष्टवस्तुकुत्सितदेहादिद्रव्यैः नरकबिलबंदिगृहादि - क्षेत्रः शीतोष्णादिव्याप्तकालेन कषायाद्याकुलितभावेन रोगसमूहक्षुधातृषावधबंधादिभिश्च तदसातवे दनीयं । यथा मधुलिप्तखड्‌गधारा स्वादुना जिह्वायाः स्तोकं सुखं जनयति तत् कर्त्तनेन महादुःखं करोति तथासातावेदनीय देहिनां स्वल्पं शर्म विधत्ते असातावेदनीयं च धनतरं दुखं कुरुते । मनोज्ञ अन्नपान, वस्त्र, आभूषण शुभ शरीरादि द्रव्य, उत्तम विमानश्वेतगृहादि दिव्य क्षेत्रों, शीत उष्ण की वाधा रहित काल उपशम परिणामों से पुण्यवान जीवों को देवादि गति में जो कर्म सुख को उत्पन्न करता है, वह सातावेदनीय है । जिस कर्म के उदय से नरकादि गति में तीव्र दुःख प्राप्त होता है विष कंटक आदि अनिष्ट पदार्थ कुत्सित शरीर आदि द्रव्य, नरकबिल - काराग्रह आदि क्षेत्र शीत उष्ण की वाधा से व्याप्त काल, कषाय आदि आकुलित भाव, व्याधि समूह क्षुधा तृषा वध बंधनआदि जन्य दुःख का अनुभव होता है, वह असाता वेदनीय है । जैसे मधु से लिप्त तलवार स्वाद से जिह्वाजन्य अल्पसुख को उत्पन्न करती है और कटने से महा दुःख उत्पन्न करती हैं उसी प्रकार सातावेदनीय कर्म प्राणियों को अल्प सुख उत्पन्न करता है पश्चात् दुख का उत्पादक है । असातावेदनीय कर्म बहुत दुःख को उत्पन्न करता है । (15) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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