Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 68
________________ प्रकृतिनामुत्कृष्टास्थितिरष्टादशावधिंकोटी कोट्यः । आहारकशरीरा हारा - कांगोपांगतीर्थकरनाम्ना उत्कृष्टास्थितिबंध: अंतः कोटाकोटिप्रमाणं । न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानं - बज्रनाराचसंहननयोरुत्कृष्टास्थिति र्द्वादशाब्धिकोटीकोट्यः । स्वातिसंस्थान नाराचसंहननयोश्चतुर्दशजलधिकोटि-कोटिसंख्यका । कुब्जकसंस्थानार्द्धनाराचसंहननयोः पराः स्थितिबंधः षोड्शसागरोपमकोटी कोट्यः । सर्वत्र यावंत्यः सागरोपमकोटिकोट्यस्तावंति वर्ष - शतान्याबाधा कर्म स्थितिः । येषां तु अंतःकोटिकोट्यः स्थितिस्तेषामांतमुहूर्त्तः आबाधा । इयं संज्ञिपंचेन्द्रियस्योत्कृष्टा कर्मबंधस्थितिः । -संस्थानकीलिकसंहननसूक्ष्मापर्याप्तिसाधारण वामनसंस्थान, कीलक संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर की उत्कृष्ट स्थिति बंध - 18 कोड़ा कोड़ी सागर है । आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग और तीर्थकर प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति अंतः कोड़ा -- कोड़ी सागर प्रमाण है । न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान, वज्रनाराच संहनन की उत्कृष्ट स्थिति 12 कोड़ाकोड़ी सागर है। स्वाति संस्थान, नाराच संहनन की उत्कृष्ट स्थिति 14 कोड़ाकोड़ी सागर है । कुब्जक संस्थान, अर्द्धनाराच संहनन की उत्कृष्ट स्थिति 16 कोड़ाकोड़ी सागर है Į सर्वत्र जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम कर्म स्थिति है उतने वर्ष उस कर्म की आबाधा होती है। जिन कर्मों की अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति है, उनकी आबाधा अंतर्मुहूर्त है । ऊपर यह संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से उत्कृष्टकर्म बंध का निरूपण किया गया है। (61) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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