Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 94
________________ दु:ख-शो करोदनाक्रंदन-संताप-परिभवविषादतीवखेद-संक्लेश-वध-बंधनांगोपांगछेदन-भेदन-ताडन-त्रासनतर्जनोच्चाटन-निरोधन-मर्दन-दमन-निर्भत्सनहिंसन निष्ठुरत्वनिर्दयत्वाशुभोपयोग-परपरिवाद-पैशून्य-कटुकालाप-मृषावादपरद्रव्यापहार-परनिंदात्मप्रशंसा-संक्लेशोत्पादन महारंभप्रर्वतनबहुपरिग्रहसंग्रहवक्रता निःशीलत्वपापकर्मप्रवीण-त्वानर्थदंडकरणविषमिश्रणशरजालपाशपंजरयंत्रायुधाग्नि याष्टिकादानपरस्त्री-विषयलंपटत्वनिशाभोजनाखाद्यभक्षण- मनोवाक्कायकौटिल्यान्नपाननिरोध-कृपणत्व-स्वेच्छाचरणा-दीन् यः स्वयं करोति चान्येषां कारयति स्वान्योश्चोत्पादयति तस्यासाता -वेदनीय-कर्माश्रव-निमित्तास्ते दुःखादयो भवंति। दुख, शोक, रोदन, आक्रंदन, संताप, परिभव, विषाद, अतिखेद, संक्लेश, वध, बंधन-आंगोपांग-छेदन-भेदन-ताडन-त्रासन-तर्जनउच्चाटन- निरोधन–मर्दन-दमन–भर्त्सन–हिंसन- निष्ठुरता, निर्दयता, अशुभोपयोग, परपरिवाद, पैशून्य, कठोर बोलना, झूठबोलना, दूसरों के द्रव्य का हरण, दूसरों की निंदा, अपनी प्रशंसा, संक्लेश को उत्पन्न करने वाले महारंभ में प्रवृत्ति, बहु परिग्रह का संचय, योगों की वक्रता, शीलरहित, पापकर्म में प्रवीणता, अनर्थदण्ड करना, विष मिलाना, बाण, जाल, पाश, पिंजरा, यन्त्र, शस्त्र, अग्नि, लाठी आदि दूसरों को देना, परस्त्री विषय लंपटत्व, रात्रि भोजन, अभक्ष्य भक्षण, मन वचन काय की कुटिलता, अन्नपान निरोध, कृपणत्व, स्वेच्छाचरण (अपनी इच्छानुसार कुछ भी करना) उपर्युक्त कारणों को जो स्वयं करता, दूसरों से करवाता, अपने या दूसरों के लिए साधन उपलब्ध कराता है। उसके ये कर्म असातावेदनीय , कर्म के आश्रव के कारण हैं और ये आश्रव दुःख रूप होते हैं। (87) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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