Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 114
________________ बादरः सुभगः यशःकीर्तिः सातावेदनीयं उच्चैाँत्रं तीर्थकरत्वं एतास्त्रयोदशप्रकृतिः अयोगकेवलीगुणस्थाने चरमसमये अपयति। ततो जीवोऽष्टगुणमयोनंतसुखसंपन्नः सिध्दो भवति। त्रस, बादर, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों का क्षय अयोग केवली गुणस्थान के अंतिम समय में होता हैं। इसके बाद जीव अनंत दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य, अव्याबाधत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघुत्व इन अष्टगुणों से युक्त होता हुआ सिद्ध होता है। गुणस्थानों में सत्त्व, असत्त्व एवं सत्त्व व्युच्छित्तियों का निरूपण मिथ्यात्व गुणस्थान में सभी 148 प्रकृतियों का सत्त्व है। इस गुणस्थान में असत्त्व एवं सत्त्व व्युच्छित्ति का अभाव है। सासादन गुणस्थान में आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति के बिना 145 प्रकृतियों का सत्त्व है। उक्त आहारक आदि तीन प्रकृतियों का असत्त्व है। सत्त्व व्युच्छित्ति का अभाव है। मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति के बिना 147 प्रकृतियों का सत्त्व है। एक तीर्थंकर प्रकृति का असत्त्व है तथा सत्त्व व्युच्छित्ति का अभाव है। असंयत गुणस्थान में सभी 148 प्रकृतियों का सत्त्व है। असत्त्व का अभाव है तथा नरकायु की सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। ___ संयतासंयत गुणस्थान में नरकायु बिना .147 प्रकृतियों का सत्त्व है। एक नरकायु का असत्त्व है तथा एक तिर्यंचायु की व्युच्छित्ति होती है। (107) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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