Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

View full book text
Previous | Next

Page 120
________________ द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थभाग पंचमभाग षष्टम भाग सप्तमभाग अष्टमभाग नवमभाग सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक क्षीणमोह 8 (अप्रत्याख्यान 4 और प्रत्याख्यान 4) 1 (नपुंसकवेद) 1 (स्त्रीवेद) 6 (हास्यादि नोकषाय) 1 (पुरुषवेद) 1 (संज्वलन क्रोध) 1 (संज्वलन मान) 1 (संज्वलन माया) 1 (संज्वलन लोभ) १५ 16 (5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय, निद्रा, प्रचला) | 0. सयोग केवली | 85 अयोगकेवली | 85 के द्विचरम समय में 72 (5 शरीर, 5 बंधन, 5 संघात, 6 संहनन, 3 आंगोपांग, 6 संस्थान, 5 वर्ण, 2 गंध, 5 रस, 8 स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, निर्माण, अयशःकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, असाता वेदनीय, नीचगोत्र ) 13 (सातावेदनीय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थंकर, मनुष्यायु, उच्चगोत्र, मनुष्यगत्यानुपूर्वी) अयोगकेवली | 13 | 135 के चरम समय में (113) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124