Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 121
________________ पठतीमं हि यो ग्रंथं कर्मस्वभावसूचक। कर्मारीन् सः परिज्ञाय, हत्वा यातिः शिवं सुधीः।। अखिलविधिविमुक्तान्, विश्वलोकाग्रवासान् । निरुपमसुखवार्डीन् ज्ञानमूर्तीन् विदेहान् ।। वसुवरगुणविभूषान्, सिद्धनाथाननंतान् । .. सकलपरमकीा , संस्तुवे तद्गुणाप्त्यैः।। इत्याचार्यश्रीसकलकीर्तिदेवविरचितं कर्मविपाकग्रंथः समाप्तः। जो कर्मों के स्वभाव का निरूपण करने वाले इस ग्रन्थ को पढ़ता है, वह बुद्धिमान कर्मरूपी शत्रुओं को जानकर तथा उन्हें नष्ट करके मोक्षपद को प्राप्त करता है। सम्पूर्ण कर्मों से रहित, लोकाकाश के अग्रभाग में विराजमान, उपमा से रहित सुख को प्राप्त, ज्ञान मूर्ति, देह रहित, आठ उत्कृष्ट गुणों से सुशोभित, सम्पूर्ण उत्कृष्ट गुणों से प्रसिद्ध ऐसे अनंत सिद्ध परमेष्ठी की उनके सदृश गुणों की प्राप्ति के लिए मैं (सकलकीर्ति आचार्य) स्तुति करता हूँ। इस प्रकार आचार्य श्री सकलकीर्ति देव रचित कर्मविपाक ग्रन्थ समाप्त हुआ। (114) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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