Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala
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प्रकृतीस्तस्यैव गुणस्थाने उपान्तसमये एता त्रिषष्टिप्रकृतीः क्षपयित्वा सयोगिकेवलिजिनो भवति। - सयोगिकेवलिजिनो न किमपि क्षपयति। अयोगिकेवलिजिनो देवगतिः पंचशरीराणि पंचशरीरसंघाताः पंचशरीरबंधनानि त्र्यांगोपांगानि षट्संस्थानानि षट्संहननानि पंचवर्णाः दिगंधाः पंचरसाः अष्टस्पर्शा:देवगतिप्रायोग्यानुपूर्य अगुरुलघुः उपघातः परघातः उच्छवासः द्विघा- विहायोगतिः अपर्याप्तिः प्रत्येकः स्थिरः अस्थिरः शुभः अशुभः दुर्भगः सुस्वरः दुस्वरः अनादेयः अयशःकीर्तिः असातावेदनीयं नीचेगोत्रं निर्माणं एता दासप्ततिः प्रकृतिः असयोगकेवली द्विचरम समये क्षपयति। ततः आदेयः मनुष्यगतिः ममुख्यगतिप्रायोग्यानुपूयं पंचेन्द्रियजातिः मनुष्यायुः पर्याप्तिः त्रसः
पांच अंतराय इन चौदह प्रकृतियों का क्षय करके सयोगकेवलीजिन होता है।
सयोगकेवलीजिन किसी भी प्रकृति का क्षय नहीं करते हैं। अयोगकेवलीजिन द्विचरम समय में इन 72 प्रकृतियों का क्षय करते हैं- असातावेदनीय, देवगति, पांचशरीर, पांचशरीरसंघात, पांचशरीर बंधन, तीन आंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण एवं नीचगोत्र। इसके बाद सातावेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त,
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