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कर्मणां क्षयकर्तारं, त्रिजगत्स्वामिनं जिन।
प्रणम्य प्रकृतिनां वक्ष्ये क्षयं कर्महानये। अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभाः मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं - सम्यक्त्वं नरकायुः तिर्यगायुः देवायुः एता दशप्रकृति असंयतसम्यग्दृष्टिः संयतासंयतः प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तसंयत्ता वा क्रमेण क्षपयति।
स्त्यानगृद्धिनिद्रा-निद्राप्रचला-प्रचलानरकगतिः तिर्यग्गतिः एकेन्द्रियजातिः द्वीन्द्रियजातिः त्रीन्द्रियजातिः चतुरिन्द्रियजातिः नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य आतापः
कर्म को क्षय करने वाले, तीनों जगत के स्वामी, जिनेन्द्र देव को नमस्कार करके मैं अपने कर्मों के क्षय करने के लिए कर्म प्रकृतियों की क्षयविधि को कहूँगा। ___नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु के सत्त्व विना कोई चरम शरीरी जीव परिणामों की विशुद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होता हुआ असंयत संम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में मोहनीय की 7 प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर क्षपक क्षेणी पर आरोहण करने के लिए सम्मुख होता हुआ अप्रमत्त संयत गुणस्थान में अधः प्रवृत्तकरण को प्राप्त होकर अपूर्वकरण के प्रयोग द्वारा अपूर्वकरण क्षपक गुणस्थान को प्राप्त करता है। पश्चात् अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति के द्वारा अनिवृत्ति वादरसाम्पराय गुणस्थान पर आरोहण करके स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तिर्यंचगति,, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति
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