Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 102
________________ -समाधिः। निरवद्ययावृत्याचार्यादिसुश्रूषावैयावृत्यकरणं। जिनपूजास्मरणस्तवाद्यनुरागोऽर्हद्भक्ति तद्वंदनाज्ञाप्रतिपालनाद्यनुराग आचार्यभक्तिः। तत् नमस्कारविनयकरणाधनुरागो बहुश्रुतभक्तिः । जिनागमचिंतनपूजननिःशंकितत्वाद्यनुरागः प्रवचनभक्तिः। सामायिकचतुर्विंशतिस्तवैकतीर्थंकर पंचपरमेष्ठिवंदनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गाणामखंडाचरणं आवश्यकापरिहाणिः। तपो ज्ञानादिभिः दानपूजाप्रतिष्ठादिभिः वा जैनधर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना। सधर्मिस्नेहः प्रवचनवत्सलत्वं एताः षोडशभावनास्तीर्थकर प्रकृत्याश्रव हेतुभूता विज्ञयाः। मुनियों की समाधि में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित हो तो उसका दूर करना साधु समाधि है। निर्दोष रीति से आचार्यादि की सेवा करना वैयावृत्यकरण है। जिनपूजन, स्मरण, स्तवन आदि में अनुराग अर्हद् भक्ति है। आचार्य वंदना, उनकी आज्ञा पालन आदि रूप अनुराग आचार्य भक्ति है। आचार्य आदि को नमस्कार, विनय आदि में अनुराग बहुश्रुत भक्ति है। जिनागम चिंतन, पूजन निःशंकित आदि गुणों में अनुराग प्रवचन भक्ति है। सामायिक, चतुर्विंशति स्तव-एक तीर्थकर स्तव, पंचपरमेष्ठि वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग इन षट् आवश्यकों का निर्दोष पालन करना आवश्यकपरिहाणि है। तप, ज्ञान, दान, पूजा एवं प्रतिष्ठादि के द्वारा जैन धर्म का प्रकाशन करना मार्ग प्रभावना है। सधर्मिजनों में स्नेह करना प्रवचन वत्सलत्व है। ये सोलह भावनायें तीर्थंकर प्रकृति के आश्रव के कारण जानना चाहिए। (95) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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