Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala
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सर्व सत्वमैत्री - गुणिप्रमोद - क्लिष्टांगि- कृपापात्रदान परोपकार - क्षमा मार्दव - निर्लो भत्वसरागसंयम-संयमासंयम तपोजिन - स्मरण - निर्यथगुरु- सेवार्हद्-भक्ति- जिनधर्मप्रभावना धर्मि जनस्नेह - वात्सल्य - ध्यानाध्ययनपंचनमस्कारजपनजिनपूजन- शुभाशय- वैयावृतयकरण-धर्मोपदेशजितेदित्वजिनचैत्यालय-विवसिद्धान्तोद्धारकरण- विनयादयः साता
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वेदनीयकर्मणामाश्रवहेतवो ज्ञातव्याः ।
केवलिजिन - सिद्धान्त देवमुनि श्रावक - जिनशासनजिनधर्म-सम्यग्दृष्टि- तपस्विधर्मिजनावर्णवाद - कुतीर्थनमन सुतीथोल्लंघनमिथ्यादृष्टि - कुज्ञान- कुतपः प्रशंसा जिनवचन
संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव, गुणी जनों के प्रति प्रमोद, दुखी जनों के प्रति कृपाभाव, दान, परोपकार, क्षमा, मार्दव, निर्लोभत्व, सरागसंयम, संयमासंयम, ऋद्धिधारी साधुओं का स्मरण, निर्ग्रथ गुरु की सेवा, अर्हत भक्ति, जिनधर्म प्रभावना, धर्मिजनों के प्रति स्नेह, वात्सल्य, ध्यान, अध्ययन, पंच नमस्कार मंत्र का जाप, जिनपूजा, प्रशस्त अभिप्राय, वैयावृत्ति, धर्मोपदेश, जितेन्द्रियत्व, जिन चैत्यालय, जिन बिम्ब एवं जिन सिद्धांत का उद्धार करना तथा विनयादि करना साता वेदनीय कर्म के आश्रव के कारण जानना चाहिए । केवली जिन, सिद्धांत, देव, मुनि, श्रावक, जिन शासन, जिनधर्म, सम्यग्दृष्टि, तपस्वी एवं धर्मिजनों का अवर्णवाद, कुतीर्थनमन, सुतीर्थ उल्लंघन, मिथ्यादृष्टि - कुज्ञान- कुतपप्रशंसा, जिन वचन में
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