Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 89
________________ पंचशरीरपंचशरीरसंघातपंचशरीरबंधनानि त्रिआंगोपांगषट्संस्थानषट्संहननपंचवर्णद्विगंधपंचरसाष्टस्पर्शा - गुरुलघूपघात - परघातातपोद्योतनिर्माणप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिराशुभाशुभाः एताः प्रकृतयः पुद्गलविपाकाः पुद्गलपरिणामिन्यो यत इति । चत्वार्यायूंषि भवविपाकानि भवधारणत्वात् । चतुरानुपूर्वाणी क्षेत्रविपाकानि क्षेत्रमाश्रित्यफलदानात् । शेषा तु प्रकृतयो जीवविपाकाः जीवपरिणामनिमित्तत्वात् । पांचशरीर, पांच शरीरसंघात, पांच शरीरबंधन, तीन आंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, निर्माण, प्रत्येक, साधारण स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ ये 62 प्रकृतियां पुद्गल विपाकी हैं। क्यों कि पुद्गल में ही इनका फल होता है। भव धारण में कारण होने से चारों आयु भव विपाकी हैं। अर्थात् नरकायु तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु के चारों आयु भाव विपाकी प्रकृतियाँ हैं । क्षेत्र के आश्रय से अर्थात् विग्रहगति में फल देने के कारण चारों आनुपूर्वी क्षेत्र विपाकी हैं। अर्थात् नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ये चारों आनुपूर्वी क्षेत्र विपाकी प्रकृतियां हैं । शेष प्रकृतियां जीव के परिणामों में निमित्त होने से जीव विपाकी हैं। विशेषार्थ - जिन प्रकृतियों का विपाक जीव में होता है अर्थात् जो प्रकृतियां जीव के परिणामों के आश्रित होती हैं उन्हें जीव विपाकी कहते हैं । जीव विपाकी प्रकृतियां 78 होती हैं। जो इस प्रकार हैं- पांच ज्ञानावरण, नव दर्शनावरण, दो वेदनीय, 28 मोहनीय, चार गति, पांच जाति, उच्छ्वास, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भाग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, तीर्थंकर दो गोत्र और पांच अंतराय । (82) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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