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प्रदेशबंधः वीरंजगत्त्रयाधीशं, प्रदेशबंधनाशिनं। नत्वा वक्ष्ये प्रदेशाख्यं, बंधं तत्-बंधहानये।।
यत्र आकाशप्रदेशे कर्मादानतत्पर आत्मातिष्ठति तत्रैव क्षेत्रे अनंतानंताः सूक्ष्मज्ञानावरणादिकर्मबंधयोग्याः पुद्गलाणवस्तिष्ठति तेनंतानंतपरमाणवः मनोवाक्कायव्यापारविशेषात् सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु ऊर्द्धअघस्तिर्यक्षु यत् परस्परं संश्लेषरूपेण समयं समयं प्रति संबंधं यांति स प्रदेशबंध। शुभाशुभयोगेन प्रकृतिप्रदेशबंधौ प्राणी बध्नाति। कषायेन स्थित्यनुभागबंधौ जीवो बध्नाति।
कर्मों के प्रदेश बंध को नष्ट करने वाले, तीनों लोकों के स्वामी वीरजिन को नमस्कार करके मैं अपने प्रदेश बंध को नष्ट करने के लिए प्रदेश बंध का निरूपण करता हूँ।
जिन आकाश प्रदेशों में कर्म को ग्रहण करने में तत्पर जीव रहता है। उस ही क्षेत्र में ज्ञानावरणादि कर्म बंध के योग्य अनंतानंत सूक्ष्म पुद्गल परमाणु रहते हैं। वे अनंतानंत परमाणु मन वचन एवं काय के व्यापार विशेष से ऊपर नीचे और तिरछे सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों से प्रति समय संबंध को प्राप्त होते हैं, उसे प्रदेश बंध कहते हैं। जीव शुभ अशुभ योग से प्रकृति और प्रदेश बंध करता है तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध करता है। विशेषार्थ - एक क्षेत्र में स्थित सूक्ष्म ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन के योग्य ऊपर, नीचे और तिरछे सब आत्म प्रदेशों में व्याप्त पुद्गल मन-वचन और काय के व्यापार विशेष के कारण प्रति समय जीव से
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