Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 27
________________ यदुदयेन मुनि र्जलरेखानिभं क्रोधं हंतुमक्षमः स संज्वलन क्रोधः । यस्य विपाकेन यति लतासमानं मानं हंतुमसमर्थः स संज्वलनमानः । यस्या उदयेन संयमी अवलेखनीसमानं निकृतिं हृदस्त्युक्तुमक्षमः सा संज्वलनमाया । यत् विपाकेन महात्मा हरिद्वातुल्यं लोभं निराकर्तुं न समर्थः स संज्वलनलोभः । ईषत् कषायाः नोकणायाः यथाख्यातसंयमघातिनः । यत् कर्म निमित्तेन रागहेतु हास उत्पद्यते तत् हास्यं येन पुद्गलस्कंधोदयेन द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु रति जयते सा रतिः । यह कषाय यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति में प्रतिबंधक होती है। जिस कषाय के उदय से जीव जल रेखा के समान क्रोध छोड़ने में असमर्थ रहता है, वह संज्वलन क्रोध है । जिस कषाय के उदय से मुनि लता के समान मान कषाय से छोड़ने में असमर्थ रहता है, वह संज्वलन मान है। जिसके उदय से मुनि अवलेखनी के समान माया को हृदय से छोड़ने में असमर्थ रहता है, वह संज्वलन माया है । जिसके विपाक से मुनि हल्दी के समान लोभ कषाय का निराकरण करने में असमर्थ है, वह संज्वलन लोभ है । ईषत् कषाय नोकषाय है। (नोकषाय में कषाय की अपेक्षा स्थिति अनुभाग और उदय की अपेक्षा अल्पता पाई जाती है।) जो यथाख्यात संयम की घातक हैं । जिस कर्म स्कंध के उदय से जीव के हास्य निमित्तक राग उत्पन्न होता है, वह हास्य है । जिन कर्म स्कन्धों के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में राग उत्पन्न होता है, वह रति है । (20) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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