Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 40
________________ नास्याभावः विग्रहगतौ जातिप्रतिनियत- संस्थानोपलंभात्। यस्य कर्मस्कंधस्य विपाकेन जीवोऽयः पिंडवन्नाधोपतति नार्कतूलवत् लघुत्वात् ऊधं व्रजति तदगुरु- लघुनाम। यद् वशादंगीबंधनोच्छवासनिरोधाग्निप्रवेशपतनाद्यैः स्वयंमात्मानं हंति तदुपघातनाम अथवा यत् कर्मजीवस्य स्वपीडाहेतूनवयवान् महाश्रृंगलंबस्तनोदरादीन् करोति तदुपघातनाम। यद् विपाकेन परघातहेतवः शरीरपुद्गलाः सर्पदंष्ट्रावृश्चिकपुछादिभवः परशस्त्राद्याघात वा भवन्ति तत् परघातनाम। यदि आनुपूर्वी नामकर्म न हो तो विग्रहगति के काल में जीव अनियत संस्थान वाला हो जायेगा, किन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि जाति प्रतिनियत संस्थान विग्रह गति में पाया जाता है। जिसके उदय से शरीर लोहे के पिण्ड के समान गुरु होने से जीव का शरीर न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु होने से ऊपर जाता है, वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिन कर्म स्कंधों के उदय से जीव अपने द्वारा किये गये बन्छ न श्वास, निरोध, अग्नि प्रवेश आदि के निमित्त से स्वयं का घात करता है, वह उपधात नामकर्म है अथवा जिस कर्म के उदय से शरीर में स्वपीड़ा के कारणभूत अवयव उत्पन्न होते हैं, वह उपघात नामकर्म हैं जैसे महाशृंग (बारह सिंगा) के समान बड़े सींग, विशाल तोंद आदि। जिस कर्म के उदय से शरीर में पर को घात करने वाले पुद्गल निष्पन्न होते हैं, वह परघात नामकर्म है, जैसे साँप की दाढ़ों में विष, विच्छू की पूंछ में पर दुःख के कारणभूत पुद्गलो का संचय आदि । (33) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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