Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 42
________________ नास्याभाव स्वल्पशरीरिणां पक्षिणामप्याकाशगमनदर्शनात् । शरीरनामकर्मोदयेन निष्पाद्यमानं शरीरमेकात्मोपभोग- कारणं यतो भवति तत् प्रत्येक शरीरनाम । येन कर्मोदयेन बह्वात्मोपभोगनिमित्तं शरीरं स्यात् तत् साधारणशरीरनाम । यद् वशात् देहिनां त्रसत्वं भवति तत् त्रसनाम। अन्यथा द्वीन्द्रियाणामभावः स्यात् । येन दुष्कर्मोदये- नांगी स्थावरेषूत्पद्यते तत् स्थावरनाम। अन्यथा स्थावराणामभावः स्यात् । यदुदयात् स्त्रीपुरुषयोरन्योन्यप्रभवं सौभाग्यं जायते तत् सुभगनाम । विहायोगति नामकर्म है, क्योंकि तिर्यंच, मनुष्य तथा पक्षियों का आकाश में गमन पाया जाता है । शरीर नामकर्म के उदय से रचा जाने वाला जो शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोग का कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है । जिस कर्म के उदय से बहुत आत्माओं के उपभोग का हेतु रूप साधारणशरीर होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है । जिस कर्म के उदय से जीवों के सपना होता है, वह त्रस नामकर्म है। स नामकर्म है, क्योंकि अन्यथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों का अभाव हो जायेगा। जिस दुष्कर्म के उदय से स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों में उत्पत्ति होती है, वह स्थावर नामकर्म है । स्थावर नामकर्म है, अन्यथा स्थावर जीवों का अभाव हो जायेगा । जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुषों में सौभाग्य अर्थात् रूपादि गुणों के होने पर प्रीतिकर अवस्था उत्पन्न होती है, वह सुभग नामकर्म है । (35) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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