Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 41
________________ यत् वशात्प्राणिशरीरेआतापो भवति तदातपनाम। नास्याभावः सूर्यमंडलपृथ्वी कायादिषु दर्शनात्। येन कर्मविपाकेनांगिदेहे उद्योतोजायते तदुद्योतनाम। नास्याभावः चंद्रनक्षत्रखद्योतपृथ्वीकायादिष्वुपलंभात्। येन कर्मोदयेन जीव उच्छवासनिः श्वासोत्पादनसमर्थः स्यात् तत् उच्छवासनाम। यदुदयेन सिंहकुंजरवृषमादीनामिव खेविद्याघरदेवादीनां प्रशस्तागति भवति तत् प्रशस्तविहायोगतिनाम। यद् दुष्कर्मवशात् रखेउष्ट्रश्रृंगालादीनामिव मक्षिकापक्ष्यादीनामप्रशस्तगति भवति तदप्रशस्तविहायोगतिनाम। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में आतप होता है, वह आतप नामकर्म है, उष्णता सहित प्रकाश को आतप कहते हैं। यदि आतप नामकर्म न हो तो पृथिवीकायिक जीवों के शरीर रूप सूर्य मण्डल में आतप का अभाव हो जाय, किन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता ।। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में उद्योत उत्पन्न होता है, वह उद्योत नामकर्म है। उद्योत नामकर्म है, क्योंकि चन्द्र, नक्षत्र, तारा और खद्योत (जुगनू) आदि के शरीरों में उद्योत पाया जाता है। जिस कर्म के उदय से जीव उच्छवास और निःश्वास रूप कार्य के उत्पादन में समर्थ होता है उसे उच्छवास नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से सिंह, कुंजर, वृषभ, विद्याधर और देव आदि के समान गमन करने रूप प्रशस्तगति होती है, वह प्रशस्त विहायोगति है। जिस कर्म के उदय से ऊंट, सियाल आदि के समान तथा मक्खी, पक्षी आदि के समान अप्रशस्तअमनोज्ञ गमन होता है, वह अप्रशस्त विहायोगति है। (34) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jairt Education International

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