Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 39
________________ एतेषामभावेप्यवर्ण शरीरं स्यात्। पूर्वोत्तरशरीरयोरंतराले एकद्वित्रिसमयेषु वर्तमानस्य नरकगतिं गतस्य जीवस्य यस्य कर्मस्कंधस्योदयेन नरकगति- प्रायोग्यसंस्थानं भवति तत् नरकगतिप्रायोग्यानुपूयं। येन कर्मविपाकेन तिर्यग्गतिं गतस्य जीवस्य विग्रहगतौ वर्तमानस्य तिर्यग्गतिप्रायोग्यं संस्थानं जायते तत् तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य। येन कर्म विपाकेन मनुष्यगति गतस्य देहिनो मनुष्यगति प्रायोग्यं संस्थानं स्यात् तत् मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूयं । यस्य कर्मण उदयेन देवगति गतस्य प्राणिनो देवगतिप्रायोग्यं संस्थानमुत्पद्यते तत् देवगति प्रायोग्यानुपूर्य नाम। इन कर्मों के अभाव में अनियत वर्णादि वाला शरीर हो जायेगा, किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। पूर्व और उत्तर शरीरों के अतंराल वर्ती एक, दो और तीन समय में जिस कर्म के उदय से नरक गति को जाने वाले जीव के नरक गति के योग्य संस्थान होता है, वह नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से तिर्यंचगति को गये हुये और विग्रहगति में वर्तमान जीव के तिर्यंचगति के योग्य संस्थान होता है, वह तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से मनुष्यगति को गये हुये और विग्रहगति में वर्तमान जीव के मनुष्यगति के योग्य संस्थान होता है, वह मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से देवगति को गये हुये और विग्रहगति में वर्तमान जीव के देवगति के योग्य संस्थान होता है, वह देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म है। (32) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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