Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 35
________________ यदि शरीरसंस्थानं न स्यात् जीवशरीरमसंस्थानं स्यात्। येन शुभ पुद्गलोदयेन वजास्थिमयंवजवलयवेष्टितं वजनाराचकीलितं अत्यंतदृढं शरीरस्य संहननं भवति तत् वजर्षभनाराचसंहनन। येन कर्म विपाकेन वजास्थिमयं वजनाराचकीलितं शरीरस्य संस्थानं जायते तत् वजनाराचसंहननं। यत् कर्मवशादस्थि संधि बंध नाराचीलितं संहननं भवति तत् नाराचसंहननं। यस्य कर्मोदयेन नाराचेनार्द्धकीलितास्थिसंचयमयं संहननं जायते तदर्द्धनाराचसंहननं। येन कर्मणा उभयास्थिप्रांते कीलितं संहननं भवति तत् कीलिका संहननं। यत् दुष्कर्मवशादंतरप्राप्त परस्परास्थिसंधिवाहिः शिरास्नायुमांसघटितं संहननं भवति यदि शरीरसंस्थान नामकर्म स्वीकार नहीं किया जाय तो शरीर संस्थान नामकर्म के अभाव में जीव का शरीर आकृति रहित हो जायेगा। जिस कर्म के उदय से वज्रमय हड्डियाँ वज्रमय वेष्टन से वेष्टित और वज़मय नाराच से कीलित होती हैं, वह वजऋषभ -नाराचशरीरसहनन है। जिस कर्म के उदय से नाराच से कीलित हड्डियों की संधियाँ होती है, वह नाराचशरीरसंहनन नामकर्म है। . जिस कर्म के उदय से अस्थिबंध अर्ध कीलित होता है, उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं । जिस कर्म के उदय से वजरहित हड्डियाँ और कीलें होती है, वह कीलक शरीर सहनन नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से भीतर हड्डियों का परस्पर बन्ध न हो मात्र बाहर से वे सिरा स्नायु मांस आदि लपेट कर संघटित की गयी (28) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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