Book Title: Karma Vipak
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Nirgrantha Granthamala

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Page 33
________________ णात्मनः स्थानेन प्रमाणेन च नियमो नास्ति। यत् शरीरनामकर्मोदयात् गृहीतपुद्गलानां शरीररूपेणान्योन्यसंश्लेषणंयतो भवति तत् बंधननाम। औदारिकादिभेदेन पंचविधं यदि बंधन नामकर्म न स्याद् वालुकापुरुषशरीरमिव शरीरं स्यात्। यदुयादौदारिकादिशरीराणां विविररहितान्योन्यप्रवेशानुप्रवेशेनेकत्वापादानं भवति तत् संघातनाम पंचविध। औदारिकादिभेदेन यदि संघातनामकर्म न स्यात् तर्हि तिलमोदक इव जीवशरीरं स्यात्। येनोदयागतेन कर्मस्कंधेन गीर्वाणजिनेशशरीराणां (इव) शुभं समचतुरससंस्थानं क्रियते तत् समचतुरससंस्थाननामकर्म। स्वस्थान तथा यथा योग्य प्रमाण में होने का अभाव हो जायेगा, जिससे अंग प्रत्यंग संकर और व्यतिकर स्वरूप हो जावेगें। __ जिस कर्म के उदय से जीव के साथ पुद्गलों का अन्योन्य प्रदेश संश्लेष सम्बन्ध होता है, वह बंधन नामकर्म है । यह औदारिक आदि शरीर के भेदों से पांच प्रकार का है। यदि शरीर बंधन नामकर्म जीव के न हो तो बालुका द्वारा बनाये गये पुरुष (शरीर) के समान जीव का शरीर होगा, क्योंकि परमाणुओं का परस्पर में बंध नहीं होगा। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों में छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेश द्वारा एकरूपता आती है वह संघातनामकर्म है। यह संघात नामकर्म औदारिक आदि पंच शरीरों के भेद से पांच प्रकार का है। यदि शरीरसंघात नामकर्म जीव के न हो तो तिल के मोदक के समान अपुष्ट शरीर वाला जीव हो जावे , किन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि तिल के मोदक के समान संश्लेष रहित परमाणुओं वाला शरीर पाया नहीं जाता। जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर भगवान के समान शुभ शरीर (26) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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