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समाधान- यदि उन धर्मो में विरोध होता तो संशय होता, किंतु अपनी अपनी अपेक्षाओं से संभव धर्मो में विरोधकी कोई संभावना नहीं है। जैसे एक ही देवदत्त भिन्न भिन्न पुत्रादि सम्बन्धियोंकी दृष्टिसे पिता, पुत्र, मामा आदि निर्विरोधरूपसे कहा जाता है वैसे ही अस्तित्व आदि धर्मों के भी एक वस्तुमें रहने में कोई विरोध नहीं है। जिस कालमें स्वरूपकी अपेक्षा वस्तु सत् प्रतीत होती है उसी कालमें उस वस्तुमें पररूपकी अपेक्षा असत्त्वकी भी प्रतीति होती है। वस्तुका स्वरूप सर्वथा अस्तित्व नहीं है, अन्यथा स्वरूपकी अपेक्षाकी तरह पररूपसे भी वस्तुकी सत्ताका प्रसंग आता है । और न सर्वथा अभाव ही वस्तुका स्वरूप है । यदि ऐसा हो तो पररूपकी अपेक्षाकी तरह स्वरूपसे भी वस्तु अभावका प्रसंग आता है । तथा न तो स्वरूपसे भाव ही पर रूपसे अभाव है और न पररूपसे अभाव ही स्वरूपसे भाव है, दोनोंके अपेक्षणीय निमित्त भिन्न भिन्न होते हैं। स्वद्रव्यादिकी अपेक्षासे भावप्रत्यय उत्पन्न होता है और पर द्रव्यादिकी अपेक्षासे अभावप्रत्यय उत्पन्न होता है। और इसप्रकार जब एक वस्तुमें सत्त्व और असी प्रति भिन्नरूपसे होती है तत्र उनमें कैसे विरोध हो सकता है ।
शका - उक्त प्रकारकी प्रतीति मिथ्या है ?
समाधान - ऐसा कहना असंगत है, क्योंकि उसका कोई बाधक नहीं है ।
शंका- विरोध बाधक है ।
समाधान - ऐसा मानने पर परस्पराश्रय नामक दोष आता है, क्योंकि विरोधके होने पर उसके द्वारा बाध्यमान होनेसे उक्त प्रकारकी प्रतोति मिध्या सिद्ध हो सकती है और उसके मिध्या सिद्ध होनेसे एकत्र सत्त्व और असत्त्व में विरोधकी सिद्धि हो सकती है। किन्तु भेद और अभेद अथवा मत्त्व और असत्यकी एक ही आधाररूपसे प्रतीति निर्वाध ज्ञानमें होती है, अतः वैयधिकरण नामक दोष भी नहीं है ।
तथा उभयदोष भी मिथ्या है, क्योंकि जैनदर्शन परम्पर में निरपेक्ष भेद, अभेद या सत्त्व और अवको एक वस्तुमें नहीं मानता जिससे उक्त दोष आ सकता । वह तो दोनोंको परस्पर सापेक्ष मानता है और वैसी ही प्रतीति भी होती है । इसी तरह सङ्कर और व्यतिकर दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि वस्तुमें दोनों धर्म स्वरूपसे ही प्रतीत होते हैं। अनवस्था दोष भी संगत नहीं है, क्योंकि धर्मी तो अनेकरूप होता है । किन्तु धर्म अनेकरूप नहीं होता, क्योंकि धर्मो के अन्य धर्म नहीं होते । भेदाभेद में अभेदरूप तो धर्मी ही होता है और भेदरूप धर्म ही होते हैं । तब अनवस्था कैसे हो सकती है । ऐसी स्थितिमें अभाव नामक दोषकी तो संभावना ही नहीं है, क्योंकि सभीको अनेकान्तात्मक वस्तुका बोध होता है ।
इस तरह सत्-असत्, नित्य अनित्य आदि सर्वथा एकान्तवादोंका प्रतिक्षेप करनेवाले अनेकान्तकी प्रतिपत्ति कैसे हो ? क्यों कि वस्तु तो अनेकान्तात्मक है और ऐसा कोई शब्द नहीं है जो एक साथ अनेक धर्मो को कह सके । तथा वक्ता अपने अभिप्रायके अनुसार किसी