Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 113
________________ सदा आश्रय करूं, जिससे मनके विकल्पके साथ, शरीरके साथ तथा पर पदार्थो के साथ रहनेवाली एकत्वबुद्धिरूप आधि-व्याधि-उपाधिमय त्रिविध तापका शमन हो कर आत्मपरिणामकी स्वस्थतारूप समाधिकी मुझे प्राप्ति हो। (२) जैसे चंदनको कूड़े के ढेर पर रखा जावे, घिसा जावे, जलाया जावे तो भी वह अपने सुगंधमय स्वभावको कभी छोड़ता नहीं, उसको काटा जावे तो काटनेवाली कुल्हाड़ीको भी यह सुगधमय बना देता है वैसे ही हे भगवन् ! चंदनद्वाग पूजा करते समय मैं भावना भाता हूं कि बाह्य अनेक प्रकारकी प्रतिकूलताएँ आने पर भी मैं उनका ज्ञाता-दृष्टा बना रहूं, मैं अपने ज्ञानमय स्वभावको कभी न छोडूं। (3) चंदनका घन अति शीतल है इसलिये उसके स्कन्ध, शाखा आदिसे सांप आदि लपटे पड़े रहते हैं। चंदन लेनका इच्छक आदमी मयरको साथमें ले जाता है, उसका केकारव सुन कर चंदन वृक्षसे लपट कर पड़े हुए सांप दि शीघ्रतया चंदन वृक्षको छोड़ कर दूर भाग जाते हैं और वह आदमी चंदन का प्राप्त कर लेता है वैसे ही चंदनके समान शीतल मेरे आत्माकी पर्यायमें मिथ्यात्व तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पड़े हुए हैं, लेकिन मेरा आन्मद्रव्य सिद्ध ममान शुद्वस्वभावी है ऐसी श्रद्धाके बलसे वे सब नष्ट हो जाओ और मुझे शुद्धताकी प्राप्ति होओ, ऐसी भाषना हे भगवन् ! चंदन द्वारा पूजा करते समय मैं भाता हूं। दीपक द्वारा पूजा करते समयकी भावना (१) जैसे दीपकमें जब तक तेल (स्नेह) है तब एक वह जलता है उसी प्रकार जा तक मुझमें स्नेह (राग) है तब तक मुझे संसारमें त्रिविध तापसे जलना पड़ेगा-परिभ्रमण करना पडेगा । हे भगवन् । दीपकद्वारा आपकी पूजा करते समय में भावना भाता हूं कि मैं स्नेह (गग का सर्वथा अभाष करके संसार परिभ्रमणसे छूट जाऊं।। (२) लौकिक दीपकके लिये तेल, घी, केरोसीन, पेट्रोल, विद्युत् आदि चाहिये, तब तक वह प्रकाशता रहता है। किंतु चैतन्य दीपकके लिये अन्य किसी भी बाह्य पदार्थकी किंचित मात्र भी आवश्यकता नहीं पड़ती है, वह स्वयं प्रकाशमान है । हे भगवन् ! दीपकद्वारा आपकी पूजा करते समय में भावना भाता हूं कि मेरा चैतन्यदीपक सदा स्वयं प्रकाशित रहो और अन्य कोई भी परद्रव्य-परभावकी उसे आवश्यकता कभी न हो। (३) रत्नदीपकके अतिरिक्त जितने भी अन्य लौकिक दीपक हैं वे सब प्रचंड वायु आदिके कारण बुझ जाते हैं, किंतु रत्नदीपक स्वयं प्रकाशमान होनेके कारण यह प्रचंड वायु आदिसे भी घुझता नहीं; बसे ही मेरे चैतन्यदीपकका प्रकाश अनंत प्रतिकूलंताओंसे भी कदापि समाप्त न होअसी मावना हे भगवन् ! दीपकद्वारा आपकी पूजा करते समय मैं भाता हूं। (४) लौकिक दीपक अन्य दीपकसे जलता हुआ देखा जाता है। हे भगवन् ! आप

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