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कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथ र
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विशेष अं0 ही, क्योंकि तादात्म्य रूपसे हो इनकी सत्ता परिलक्षित होती है। कहा भी है‘सामान्य-विशेषात्मा तदर्थो विषयः । ' इसलिए द्रव्यके केवल एक अंशसे कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा यहाँ कहना नहीं है। किन्तु यहाँ कहना यह है कि जीवकी संसार और मुक्त ये दो अवस्थाएं हैं। उनमेंसे संसारकी उत्पत्ति निमित्त और पर्यायके लक्ष्यसे होती है और मोक्षकी उत्पत्ति स्वभावके लक्ष्यसे होती है । इसलिए मोक्षका यदि कोई मुख्य साधन है तो वह एक मात्र स्वभावको लक्ष्यमें लेना ही है। जब यह जीव स्वभावको लक्ष्यमें लेता है तब कार्य तो उपादानके अनुसार ही होता है इसमें सन्देह नहीं। परन्तु स्वभावको लक्ष्यमें लेनेसे उपादान स्वभावकी ओर ढलकर नियमसे स्वभावपर्यायको ही उत्पन्न करता है ऐसा नियम है ।।
यही कारण है कि प्रकृतमें पर्याययुक्त द्रव्यको साधन न कह कर परम पारिणामिक भावको ग्रहण करनेवाले निश्चयनयकी मुख्यतासे द्रव्यके एक अंश त्रिकाली ज्ञायकभावको यथार्थ साधन कहा है । पर्याय और निमित्तका लक्ष्य संसारका साधन है और स्वभावका लक्ष्य मोक्षका साधन हे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । स्वभावरूप अपने त्रिकाली ज्ञायक भावका आलम्बम लेने पर यह आत्मा स्वयं स्वभावरूप परिणम जाता है। इसलिए वही एक आत्मा साध्य है और वही साधन है ।
यह जिनागमका सार है। इसे ध्यानमें रखकर विचार करने पर विदित होता है कि अन्यत्र (पंचास्तिकाय गाथा १६०-१६१ में ) जो व्यवहार रत्नत्रयको साधन ओर निश्चय रत्नत्रयको साध्य कहा है सो उस कथनका इतना ही तात्पर्य है कि जिसने अनादि अज्ञानका नाश कर शद्धिका अंश प्रगट किया है एसे जीवके सविकल्प दशामें भूमिकानुसार निःशंकित-निःकांक्षित आदि म्प, स्वाध्याय पूजादि रूप और निरतिचार व्रतादि रूप भाव होते हैं तथा तदनुरूप व्यापार भी होता है पर इससे प्राप्त आंशिक शुद्धिकी कोई क्षति नहीं होती । इसलिए व्यवहारनयसे व्यवहार मोक्षमार्गको साधन और निश्चय मोक्षमार्गको साध्य कहने में आता है । पर इसका अर्थ यदि कोई यह करे कि पूजा, स्वाध्याय और व्रतादि परिणाम करत करने आत्मा में स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति हो जायगी तो उसका ऐसा अर्थ करना समीचीन नहीं हैं। अज्ञान भावका अभाव होकर शुद्धिकी उत्पत्ति या वृद्धिका क्रम यह है कि जब यह जीव पृजा, स्वाध्याय, और व्रताचरणरूप विकल्पसे निवृत्त हो शुद्ध निश्चयनयके विषयभूत ज्ञायकम्वरूप एकत्वका पुनः पुनः मनन करता है तो अन्तमें यह विकल्प भी छूट कर उपयोग म्वयं ज्ञायक भावरूप परिणम जाता है । इसीका नाम नयपक्षसे अतीत निर्विकल्प समाधिरूप अवस्था है। इसे भेद दृष्टिसे देखने पर आत्मरुचिका नाम सम्यग्दर्शन है, आत्मज्ञानका नाम सम्यग्ज्ञान है और आत्मस्थितिका नाम सभ्यश्चारित्र है। किन्तु अभेददृष्टि से देखने पर उन तीनमय स्वानु: तिरूपसे परिणत एक आत्मा ही है। स्पष्ट है कि म्वरूपोपलब्धिमें आत्मा ही साधन है और आत्मा ही साध्य है, अन्य सब व्यवहार है । अतएव मोक्षमार्गकी प्रसिद्धिके लिए एकमात्र त्रिकाली ज्ञायकस्वभाव आत्मा ही उपादेय है ऐसा यहाँ श्रद्धान करना चाहिए ।
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