Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 175
________________ - प्रतिष्ठाता थे। वह भो बड़े वादी और प्रकाण्ड पण्डित थे । कथा कोपोंमें और कनड़ीभाषाकी गजावलिकथेमें उनकी जीवन कथा मिलती है । कथाकोषके अनुसार अकलंककी जन्मभूमि मान्यखेट थी और वहाँके राजा शुभतुंगके मंत्री पुरुषोत्तमके वे बड़े पुत्र थे। उनके छोटे भाईका नाम निष्कलंक था । राजावलिकथेके अनुसार उनका जन्मस्थान कांची था । उसमें लिखा है । कि जिस समय कांचीमें बौद्धोंने जैनधर्मकी प्रगतिको रोक दिया था उस समय जिनदास नामक ब्राह्मणके यहां अकलंक और निकलंक नामके दो पुत्र हुए । वहां उनके सम्प्रदायका कोई पढ़ानेवाला न होनेसे इन दोनों बालकोंने गुप्तरीतिसे बौद्धगुरुसे पढ़ना प्रारम्भ किया। जब गरु अपने बौद्ध शिष्योंको बौद्ध शास्त्र पढाते थे तो दोनों भाई छिप कर सब सुनते रहते थे। एक दिन गुरुजी दिङ्नागके किसी ग्रन्थको पढ़ाते थे । दिङ्नागने अनेकान्तका खण्डन करने लिये पूर्वपक्षके रूपमें सप्तभंगीका निरूपण किया था। पाठ अशुद्ध होने के कारण बौद्ध गुरु उसे समझ नहीं सके और पढ़ाना बन्द करके चले गये। अकलंकदेवने पाठ शुद्ध कर दिया । पुस्तक खोलने पर गुमने शुद्ध पाठ लिखा देखा और उस परसे जाना कि बौद्धमठमें जैन शास्त्रोंका ज्ञाता कोई जैन बौद्ध बनकर अध्ययन करता है । उन्होंने उसकी खोज करने के लिये एक दिन एक जैन मूर्ति मंगाकर सब छात्रोंको उसे लांघनेकी आज्ञा दी। अकलंक मूर्ति पर धागा डालकर उसे लांघ गये । दूसरे दिन गुरुने रात्रिके समय प्रत्येक छात्रकी शय्याके पास एक एक मनुष्यको खड़ा करके ऊपर से वर्तनोंसे भरी बोरी जमीन पर पटक दी । भयंकर शब्द सुनकर सत्र छात्र जाग पड़े और अपने २ इष्टदेवका म्मरण करने लगे । अकलक निकलंकने पश्च नमस्कार मंत्रको पढ़ा और पकड़ लिये गये । दोनोंको एक विहारकी माती मंजिल पर कैद कर दिया गया। एक छातेकी सहायतासे विहारसे कृढ़कर दोनों भाई भाग लिय । उन्हें पकड़ने के लिये घुड़सवार दौड़ाये गये । घोड़ोंकी टापोंका शब्द मुनकर छोटे भाईने बड़े भाईसे तालाब में छिपकर जान बचाने का अनुरोध किया, और छोटाभाई निकलंक भागता गया । उसे भागता देखकर और पीछेसे धूल उड़ती देखकर एक धोबीका लड़का भी उसके साथ भागने लगा। सवारोंन दोनों को मार डाला । छोटे भाईके बलिदान के बाद अकलंकने जगह जगह राजसभाओंमें जाकर बौद्धोंसे शास्त्रार्थ किया । इसके विषयमें यह 'लोक मिलता है विक्रमार्कशताब्दीयशतसप्तप्रमाजुपि । ___ कालेऽकलङ्कयनिनो बौद्धैर्वादो महानभून ।। अर्थात-विक्रम सम्बत् ७०० में अकलंक स्वामीका बौद्धोंके साथ महान् शास्त्रार्थ हुआ। अकलंकदेवने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थराजवार्तिक नामक वार्तिक ग्रन्थ रचा और जैनन्याय पर न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह और लघीयत्रय नामक महान् ग्रन्थ भाष्यसहित रचे । तथा समन्तभद्रके आप्तमीमांसा पर अष्टशती नामक भाष्य रचा। इनकी रचनाएं बड़ी दुरूह और विद्वत्तापूर्ण हैं । जैन न्यायशास्त्र के अनेक मंतव्य इन्हींकी देन हैं।

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