________________
9
कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ
आचार्थ पात्रकेसरी और विद्यानन्दि
पहले इन दोनों आचार्यों को एक ही व्यक्ति समझ लिया गया था । पीछे पं. जुगल किशोरजी मुख्तारकी खोजोंके फलस्वरूप ज्ञात हुआ कि पात्रकेसरी अकलंकदे वसे पूर्व में हुए हैं और विद्यानन्द अकलंकदेव के पश्चात् हुए हैं । पात्रकेसरीने त्रिलक्षणकदर्थन नामक प्रन्थ रचा था, जिसका केवल नामोल्लेख मिलता है । बौद्धदर्शनमें हेतुके तीन लक्षण माने गये हैं- पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष-असत्त्व । इन्हीं के खण्डन के लिये पात्रकेसरीने त्रिलक्षण कदर्थन' नामक शास्त्र रचा था। उनका एक श्लोक प्रसिद्ध है जिसे अकलंकदेवने भी अपनाया है
•
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥
अर्थात् हेतुका एक ही लक्षण है- अन्यथानुग्पत्ति-साध्य के अभाव में हेतुका अभाव | जहां पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां तीनों रहें भी तो व्यर्थ है और जहां अन्यथानुपपत्ति हैं वहां तीनों भी रहें तो व्यर्थ है ।
विद्यानन्दस्वामी जन्मसे जैन नहीं थे । स्वामी समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसाको सुनकर उनका जैनधर्म पर श्रद्धान हो गया था और तब उन्होंने उस पर अष्टसहस्रो नामक पाण्डित्यपूर्ण दर्शन ग्रंथ रचा था । उसकी महत्ताको ख्यापन करते हुए स्वयं उन्होंने लिखा हैश्रोतव्याण्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमय सद्भावः ॥
हजारों शास्त्रोंके श्रवणसे क्या लाभ ? केवल एक अष्टसहस्री सुनना चाहिये, उसी से स्वसमय और परसमयका सद्भाव ज्ञात होजाता है ।
अष्टसहस्रीके प्रारम्भमें इन्होंने मीमांसक कुमारिल और प्रभाकर भट्टके मन्तव्यांका कसकर खण्डन किया है। सभी दर्शनों के यह प्रखर विद्वान् थे । आप्तपरीक्षा नामक प्रकरण में fraredaar सयुक्तिक खण्डन बड़े विस्तारसे किया है। कुमारिलके मीमांसाश्लोकवा तिकसे प्रभावित होकर इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्वार्थश्लोकवार्तिक नामक ग्रन्थ रचा था। वह भी दक्षिण के निवासी थे। इन्होंने अपने ग्रन्थोंके अन्त में गंगनरेश शिवमार द्वितीयका तथा उसके उत्तराधिकारी राचमल सत्यवाक्यका उल्लेख किया है । अतः इनका समय ईसाकी आठवीं-नौवीं शताब्दी है । इनके पश्चात् जैन परम्परामें इनकी कोटिका कोई दार्शनिक नहीं हुआ । आचार्य वीरसेन - जिनसेन - गुणभद्र
ये तीनों महान् ग्रन्थकार मूलसंघके पंचस्तूप नामके अन्वयमें हुए थे । वीरसेन के शिष्य जिनसेन थे और जिनसेनके गुणभद्र । वीरसेन स्वामीने चित्रकूट में जाकर एलाचार्यके समीप