Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 194
________________ mema MassasuTIME ANTARN PARIKSHA MARATHI आदिका विशिष्ट निश्चय किया गश है । इस तरह इस न्यायविनिश्चयमें जैन न्यायकी रूपरेखा बांधकर उसकी प्रस्थापना की गई है । यह अन्य भी अकलंकदेवके दूसरे ग्रन्थोंकी तरह दुर्बोध और गम्भीर है। इस पर भी अकलंकदेवकी स्वोपज्ञ विकृति होनेकी संभावना की जाती है, पर वर्तमानमें वह उपलब्ध नही है। न्यायविनिधयकी मूल कारिकाओंपर स्याद्वाद विद्यापति आ. वादिगज की विस्तृत टीका है, जिसका नाम न्यायविनिश्चय विवरण अथवा न्यायविनिश्चयालंकार है। वादिराजने इसमें मूल कारिकाओंके प्रत्येक पदका विशद और विस्तृत व्याख्यान किया है । वृत्तिपर उनका व्याख्यान नहीं है, इसीसे सम्भवतः वह चिन्तन अनुशीलनमें छूट जानेसे आज उपलब्ध नहीं है। ६ लघोयस्त्रय सश्वृिति इस ग्रन्थमें तोन प्रवेश हैं और प्रवेशका अर्थ प्रकरण लिया गया है । इस लिए इसमें तीन प्रकरण होनेसे इसे लधीयत्रय (लघु तीन प्रकरणोंका समुच्चय ) कहा जाता है। वे तीन प्रवेश इस प्रकार हैं १ प्रमाणप्रवेश, २ जयप्रवेश और ३ प्रवचनप्रवेश । प्रवचनप्रवेशमें चार परिच्छेद है- १ प्रत्यक्ष परिच्छेद, २ विषय परिच्छेद, ३ परोक्ष परिच्छेद और ४ आगम परिच्छेद । इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश और प्रवचन प्रवेशको एक-एक परिच्छेद मानकर कुल छह परिच्छेदों पर अकलंकदेवकी स्वोपज्ञ विवृति उपलब्ध है। हाँ, लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आ. प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदोंपर अपनी 'न्यायकुमुदचन्द्र 'टीका लिखीं है । प्रवचनप्रवेशमें जहाँ तक प्रमाण तथा नय का वर्णन है यहाँ तक प्रभाचन्द्रने छठवाँ परिच्छेद और निक्षेपके वर्णनको सातवाँ परिच्छेद माना है । इस पूरे प्रकरण प्रन्थमें कुल कारिकाओंकी संख्या ७८ है। इन पर अकलंकदेवकी म्योपज्ञ विति है, जो कारिकाओंका व्याख्यान न होकर कितने ही नये विषयोंकी वह संसूचिका है । आ० प्रभाचन्द्रकी इस पर लघीयस्त्रयालंकार अथवा 'न्यायकुमुदचन्द्र ' नामकी अति विस्तृत प्रमेयबहुल व्याख्या है जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुकी है । इस लधीयलय पर आ० अभयचन्द्रकी भी लधीयत्रयतात्पर्यवृत्ति ( स्याद्वादभूषण) नामकी एक लघु किन्तु विशद और प्राञ्जल व्याख्या उपलब्ध है । यह भी माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे कई वर्ष पूर्व प्रकट हो चुकी है । इस प्रन्थके विषयका निरूपण, प्रवेशों तथा परिच्छेदोंके नामसे ही अवगत हो जाता है। ये प्रायः सभी कृतियाँ दार्शनिक एवं न्यायविषयक हैं। और तत्त्वार्थवार्तिक भाष्यको छोड़कर सभी गूढ एवं दुरवगाह है । अनन्तवीर्यादि टीकाकारोंने इनके पदोंकी व्याख्या करने में अपनेको असमर्थ बतलाया है। वस्तुतः अकलंकका सगप्र वाङ्मय दुर्गम और दुर्वाध है। यही उसकी अमरता, विद्वग्राह्यता और असाधारणता है।

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