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समयसार कलशकी बालावबोध टीका इनकी भावभरी कृति है। अध्यात्मरहस्यको इस टीकामें उन्होंने विशद व्याख्या की है। १७ वीं शताब्दी एवं उसके पश्चात् जो जैन कवियोंने अध्यात्मसाहित्य पर विशेष जोर दिया एवं उसके स्वाध्याय तथा पठन-पाठनकी जो प्रवृत्ति चली उसमें समयसार कलशकी इस बालावबोध टीकाका प्रमुख हाथ है।
___ यह टीका भाषाकी दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण है। कविकी भाषा यद्यपि ढूंढारी है, किन्तु उसमें बोलचालके शब्दोंकी व्यापकता होने के कारण उसे समझने में अधिक कठिनाई नहीं होती। भाषाका एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है
यथा कोई जीव मदिरा पिवाह करि विकल कीजै छै । सर्वम्व छिनाइ लीजै छ। पद नैं भ्रष्ट कीजै छै तथा अनादि नाई लेई करि सर्व जीवराशि राग द्वेष मोह अशुद्ध परिणाम करि मतवालो हुओ छ तिहि ते ज्ञानावरणादि कर्मको बंध होइ छ ।
इनका मुख्य स्थान संभवतः वैराट था और ये माहित्य प्रचार एवं आध्यात्मिक उपदेशके लिय आगग. आमेर, सांगानेर, नागौर, अजमेर आदि स्थानों में प्रायः जाया करते थे। वहाँके धनी श्रावकोंसे इनका विशेष सम्बन्ध था। इसलिये ये जहाँ भी जाते वहीं विशेष सत्कार पाते थे। (३) रूपचन्द
पं. रूपचन्द ७ वीं शताब्दीके आध्यात्मिक विद्वान् थे। कविवर बनारसीदासने अर्ध कथानक में इनका अपने गुरुके रूपमें उल्लेख किया है। ये बनासीदासके समकालीन विद्वान् थे। १७ वीं शतादी में आध्यात्मिक साहित्यका जो अत्यधिक प्रचार हुआ उसमें इनका प्रमुख हाथ था। ये अंचे कवि थे। इनकी कवितामें अध्यात्मसरिता बहती है। जो भी उसे पढ़ता है उसे मानो अध्यात्मसरितामें गोते लगानेका आनन्द आता है।
__ परमार्थ दोहाशतक, परमार्थगीत, अध्यात्मदोहा, अध्यात्मसवैया, परमार्थहिंडोलना, खटोलना गीत आदि इनकी कितनी ही रचनाएँ अभ्यात्मरससे इतनी ओत-प्रोत हैं कि पाठक उन्हें पढ़कर आत्माके वास्तविक स्वभावको जानने लगता है। संसार, देह एवं भोगोंके यथार्थ स्वरूपका बोध होने के पश्चात् वह अपने आपको सुधारनेका प्रवास करता है। एक उदाहरण देखिये
जीवतकी आस करै काल देख हाल डरै; डोले च्याम गति पै न आवै मोक्ष मगमें । माया सौं मेरी कहै मोहनी सौं सीठा रहै; तापै जीव लागै जैसा डांक दिया नगमे । घरकी न जाने रीति, पर सेती मांडे प्रीति; बाटके बटोई जैसे आइ मिलै वगमें । पुग्गल सौ कहै मेरा जीव जानै यह डेरा; कर्मकी कुलफ दीयै फिरै जीव अगमें ॥३॥
अध्यात्मसबैया
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