Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 167
________________ ALSHRA PRATISHT X D and I STEP PRASTRAM BARAMAgeet ARRIA -ms s m .- -. :-. 2- मेरे बाद श्रुतका विच्छेद होना सम्भव है, इन्होंने प्रवचन वात्सल्यभावसे महिमा नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्यों के पास पत्र भेजा। उसे पढ़कर उन आचार्यों ने ग्रहण और धारण करने में समर्थ नाना प्रकारकी उज्वल और निर्मल विनयसे विभूषित अंगवाले, शीलरूपी मालाके धारक, देश-कुल-जातिसे शुद्ध, समस्त कलाओंमें पारंगत ऐसे दो साधुओंको आन्ध्रदेशमें वहनेवाली वेणानदीके तट से भेजा। जब ये दोनों साधु मार्ग में थे, आचार्य धरसेनने अत्यन्त विनयवान् शुभ्र दो बैलोंको स्वप्न में अपने चरणों में विनतभावसे पड़ते हुए देखा। इससे सन्तुष्ट हो आचार्य धरसेनने 'श्रुतदेवता जयवन्त हो' यह शब्द उच्चारण किया । साथ ही उन्होंने मुझे सम्यकू श्रुतको धारण और ग्रहण करने में समर्थ एसे दो शिष्योंका लाभ होनेवाला है' यह जान लिया । . ____ जिस दिन आचार्य धरसेनने यह स्वप्न देखा था उसी दिन वे दोनों साधु आचार्य धरसेनको प्राप्त हुए । पादवन्दना आदि कृतिकर्मसे निवृत्त हो और दो दिन विश्रामकर तीसरे दिन वे दोनों साधु पुनः आचार्य धरसेनके पादमूलमें उपस्थित हुए। इष्ट कार्यके विषयमें जिज्ञासा प्रगट करने पर आचार्य धरसेनने आशीर्वादपूर्वक दोनोंको सिद्ध करने केलिए एकको अधिक अक्षरवाली और दूसरेको हीन अक्षरवाली दो विद्याएं दी और कहा कि इन्हें षष्ठभक्त उपवासको धारणकर सिद्ध करो। विद्याएं सिद्ध होने पर उन दोनों साधओंने देखा कि एक विद्याकी अधिष्ठात्री देवीके दाँत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी विद्याकी अधिष्ठात्री देवी कानी है। यह देखकर उन्होंने मन्त्रोंको शुद्ध कर पुनः दोनों विद्याओंको सिद्ध किया। इससे वे दोनों विद्यादेवनाएं अपने स्वभाव और अपने सुन्दररूपमें दृष्टिगोचर हुई। तदनन्तर उन दोनों साधुआंने विद्यासिद्धिका सब वृत्तान्त आचार्य धरसेनके समक्ष निवेदन किया। इससे उन दोनों साधुओं पर अन्यन्त प्रसन्न हो उन्होंने योग्य तिथि आदिका विचार कर उन्हें प्रन्थ पढ़ाना प्रारम्भ किया । आपाढ़ शुक्ला ११के दिन पूर्वाद्वकालमें ग्रन्थ समाप्त हुआ। जब इन दोनों साधुओंने विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया तब भूतजातिके व्यन्तर देवोंने उनकी पूजा की। यह देख आचार्य धरसेनने एकका नाम पुष्पदत्त और दूसरेका नाम भूतबलि रखा। बादमें वे दोनों साधु गुरुकी आज्ञासे वहाँसे रवाना होकर अंकलेश्वर आये। और वहां वर्षाकाल तक रहे । धर्पयोग समाप्त होने पर पुष्पदन्त आचार्य वनवास देशको चले गये और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देशको गये। बादमें पुष्पदन्त आचार्यने जिनपालितको दीक्षा देकर तथा वीसदि सूत्रोंकी रचना कर और जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलि आचार्यके पास भेज दिया । भूतबलि आचार्यने जिनपालितके पास वीसदि सूत्रोंको देखकर और पुष्पदन्त आचार्य अल्पाय है ऐसा जिनपालितसे Keyunic - SESASTE TARA

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