Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 170
________________ INTERNER कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथम २NHAPATANINGAPahsneursestarthurasRAANTanhaikundalinraamanartTHANKathmandutail K HANRA R ANASI वन्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्तिविभूषिताशः । यश्चारुचारणकराम्बुजचश्चरीकश्चके श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।। __ जिनकी कुन्दकुसुमकी प्रभाके समान शुभ्र एवं प्रियकीर्तिसे दिशाएं विभूषित है अर्थात् सब दिशाओं में जिनका उज्ज्वल और मनोमोहक यश फैला हुआ है, जो प्रशस्त चारण ऋद्धिधारक मुनियोंके करकमलोंके भ्रमर हैं और जिन्होंने भरतक्षेत्र में श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे स्वामी कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किनसे वन्दनीय नहीं हैं ? अर्थात सभीके द्वारा वन्दना किये जाने के योग्य हैं। शिलालेख नं. ४०में उनका परिचय देते हुए लिखा है तस्यान्वये भूविरित बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यरसत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ॥ उन (श्री चन्द्रगुप्त मुनिराज ) के प्रसिद्ध वंशमें वे श्री कुन्दकुन्द मुनीश्वर हुए हैं, जिनका पहला नाम पद्मनन्दि था और जिन्हें सत्संयमके प्रसादसे चारणऋद्धि प्राप्त हुई थी। शिलालेख नं. १०५में भी उनकी इस ऋद्धिका विवेचन करते हुए लिखा है रजोभिरम्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः । रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ॥ योगिराज श्री कुन्दकुन्द रजःस्थान पृथ्वीतलको छोड़कर जो चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करते, उसके द्वारा, मैं समझता हूँ, वे इस बातको व्यक्त करते थे कि वे अन्तरंगके साथ बाह्यमें भी रजसे अत्यन्त अस्पृष्ट हैं। कुन्दकुन्द स्वामीने अपने ग्रन्थोंमें अपने सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा । केवल बोधपाहुडके अन्त में श्रुतकेवली भद्रबाहुका जयकार करते हुए उन्हें अपना गमक गुरु बतलाया है। और ऊपर शिलालेख नं. ४० में कुन्दकुन्दको भद्रबाहुके ही वंशमें हुआ बतलाया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु उत्तरभारतमें बारह वर्षका भयकंर दुर्भिक्ष पड़ने पर अपने संघके साथ दक्षिण भारतकी ओर चले गये थे और श्रवणबेलगोलाके चन्द्रगिरि पर उनका स्वर्गवास हुआ था । मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त भी राज्य छोड़कर उनके साथ गये थे। उन्होंके नामसे उस गिरिका नाम चन्द्रगिरि पड़ा था। यह सब वहांके शिलालेखोंमें अंकित है। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहुने दक्षिण भारतमें नो ज्ञानकी परम्परा प्रवर्तित की वही गुरुपरम्परासे कुन्दकुन्दको प्राप्त हुई, जिसका एक प्रमाण समयसारकी प्रथम गाथामें श्रुतकेवलीका निर्देश पाया जाना है । उन्होंने समयमाभृतको श्रुतकेवली कथित कहा है। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु भगवान् कुन्दकुन्दके परम्परा गुरु थे, इसमें सन्देह नहीं है। शिलालेखमें कुन्दकुन्दको धारणऋद्धिका धारक कहा है। और देवसेनने अपने दर्शनसारमें ANSAANSISTORR C AMA HEAsles

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