Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 168
________________ 10- NAVB H 711Y GLAMICHYi SAHEN कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ HONEY जानकर महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होनेके भयसे द्रव्यप्रमाणानुगमसे लेकर शेष ग्रन्थकी रचना की। यह आचार्य धरसेन प्रभृति तीन प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त परिचय है। इस समय नन परम्परामें पुस्तकारूढ़ जो भी श्रुत उपलब्ध है उसमें षट्खण्डागम और कषायप्राभृतकी रचना प्रथम है। षट्खंडागमके मूल श्रोतके व्याख्याता हैं आचार्य धरसेन तथा रचयिता हैं आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि । आचार्य गुणधर-यतिवृषभ जैन परम्परामें षदखण्डागमका जो स्थान है वही स्थान कषायप्राभृतका भी है। इन आगमग्रन्थोंका मूल स्रोत क्या है यह तो श्रुत परिचयके समय बतलावेंगे। यहाँ तो मात्र कषायप्राभृतके रचयिता आचार्य गुणधर और उसपर वृत्तिसूत्रोंकी रचना करनेवाले आचार्य यतिवषमके बारेमें लिखना है। कषायप्राभतकी प्रथम गाथासे सम्पष्ट विदित होता है कि आचार्य धरसेनके समान आचार्य गुणधर भी अंग-पूर्वो के एकदेशके ज्ञाता थे। उन्होंने कपायप्राभृत की रचना पांचवें पूर्वकी दशवी वस्तुके तीसरे प्राभृतके आधारसे की है । इससे विदित होता है कि जिस समय पाँचवें पूर्वकी अविच्छिन्न परम्परा चल रही थी तब आचार्य गुणधर इस पृथिवीतलको अपने वास्तव्यसे सशोभित कर रहे थे। ये अपने काल के श्रुतधर आचायों में प्रमुख थे। आचार्य यतिवृषभ उनके बाद आचार्य नागहस्तीके कालमें हुए हैं, क्योंकि आचार्य वीर. सेनने इन्हें आचार्य आर्यमंक्षुका शिष्य और आचार्य नागहरतीका अन्तवासी लिखा है। ये प्रतिभाशाली महान् आचार्य थे यह इनके कषायप्राभृत पर लिखे गये वृत्तिसूत्रों (चूर्णिसूत्रों से ही ज्ञात होता है। वर्तमानमें उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्ति इनकी अविकल रचना है यह कहना तो कठिन है। इतना अवश्य है कि इसके सिवा एक त्रिलोकप्रज्ञप्ति और होनी चाहिए । सम्भव है उसकी रचना इन्होंने की है। यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि सम्यक् श्रुतके अर्थकर्ता तीर्थकर केवली होते हैं और ग्रन्थकर्ता गणधरदेव होते हैं। इस तथ्यको ध्यानमें रख कर आनुपूर्वी क्रमसे विचार करने पर विदित होता है कि सिद्धान्त ग्रन्थों और तदनुवर्ती श्रुतके सिवा अन्य जो भी श्रुत वर्तमानकालमें उपलब्ध होता है उसके रचयिता आचार्यों ने परिपाटी क्रमसे प्राप्त हुए श्रुतके आधारसे ही उसकी रचना की है। इसलिए यहाँ पर कुछ प्रमुख श्रुतधर आचार्यों का नाम निर्देश कर देना भी इष्ट है जिन्होंने अन्य अनुयोगोंकी रचना कर सर्व प्रथम श्रुतके भंडारको भरा है । द्रव्यानुयोगको सर्व प्रथम पुस्तकारूढ़ करनेवाले प्रमुख आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द हैं । इनकी और इनके द्वारा रचित श्रुतकी महिमा इसीसे जानी जा सकती है कि भगवान् महावीर और गौतम गणधरके बाद इनको स्मरण किया जाता है। उत्तर कालमें आचार्य गृद्धपिच्छ; वट्टकेर, Histen

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