Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 162
________________ 1 कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ प्रवचनसार गाथा ५ की टीकामें अमृतचन्द्र आचार्य लिखते हैं कि इस जीवके कमाय are faद्यमान होने से पुण्यबन्धकी प्राप्तिका हेतुभूत सरागचरित्र क्रमसे आजाता है, परन्तु उसे पीछे छोड़कर निर्वाणकी प्राप्तिके हेतुभूत वीतराग चारित्रको प्राप्त करना चाहिए । सो इस कथनका भी वही आशय है । इसी तथ्यको सष्ट करते हुए पं. हेमराजजी प्रवचनसार गाथा ११के भावार्थ में लिखते हैं कि ' वीतराग सराग भावोंकर धर्म दो प्रकारका है। जब यह आत्मा वीतराग आत्मीक धर्मरूप परिणमता हुआ शुद्धोपयोग भावोंमें परिणमन करता है तब कर्मों से इसकी शक्ति रोकी नहीं जासकती। अपने कार्य करनेको समर्थ हो जाता है, इस कारण अनन्त अखंड निज सुख जो मोक्षसुख उसको स्वभाव ही से पाता है और जब यह आत्मा दान, पूजा, व्रत, संयमादिरूप सराग भावोंकर परिणमता हुआ शुभोपयोग परिणतिको धारण करता है तब इसकी शक्ति कमोंसे रोकी जाती है, इसलिए मोक्षरूपी कार्य करनेको असमर्थ हो जाता है । फिर उस शुभोपयोग परिणमनसे कर्मबन्धरूप स्वर्गो के सुखको ही पाता है । ' यद्यपि शास्त्रोंमें व्यवहारको साधन और निश्चयको साध्य कहा है सो उसका इतना ही पर्य है कि विकल्प दशा में निश्चयके साथ परको लक्ष्यकर जो व्यवहार होता है वह उस अवस्था में प्राप्त निश्चयका प्रतिबन्धक न होनेसे उसमें साधनपनेका व्यवहार किया जाता है और निर्विकल्प अवस्था में सहचर होनेसे उसे साधन कहा गया है। पर इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि व्यवहारसे निश्चय धर्मकी उत्पत्ति होती है तो उसका ऐसा अर्थ करना इसलिए भ्रांत है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनुभूतिरूप निर्विकल्प अवस्थाको स्वीकार करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। केवल व्यवहारसे ही उत्तरोत्तर आत्मीक शुद्धि में वृद्धि होकर मुक्तिकी प्राप्ति आननी पड़ेगी । उतएव सर्वत्र ऐसा ही श्रद्धान करना उचित है कि मोक्षमार्ग में सर्वत्र पराश्रित होनेसे व्यवहार प्रतिषेध्य है और आत्माश्रित होनेसे निश्चय उसका प्रतिषेधक है । ( ४ ) अब देखना यह है कि जिससे रत्नत्रयकी उत्पत्ति होकर यह आत्मा स्वयं समयसार हो जाय इसके लिए इस आत्माके उपयोगका आलम्बन-ध्येय क्या हो ? यह कौनसा पदार्थ है जिसका आश्रय करनेसे इसमें रत्नत्रयस्वरूप धर्मकी उत्पत्ति होती है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि संसारी जीवने संसारकी परिपाटीवरूप और सब कुछ किया, मात्र अभी तक अपने एकत्वको नहीं प्राप्त किया— नहीं अनुभवा । आगे वे लिखते हैं कि में स्वविभवसे उस एकत्वका दर्शन कराऊँगा । वह स्वविभव क्या है इसका खुलासा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि जो आगम, गुरु उपदेश और युति से पुष्ट हुआ है ऐसे स्वानुभव प्रत्यक्ष से उस एकत्व के दर्शन करानेकी यहाँ आचार्य कुन्दकुन्दने प्रतिझा की है। आगे वे ज्ञायकरवरूप एकत्वको सब प्रकार के व्यवहारसे अछूता बतलाते हुए कहते हैं कि जो ऐसे आत्माको देखता है

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