Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 163
________________ MANANDI m NITISHARMALSOMINGABAR SHARA MATHILION अनुभवता है वह पूरे जिनशासनको अनुभवता है। यही ज्ञानानुभूति है, यही आत्मानुभूति है और जिनशासनकी अनुभूति भी यही है। स्पष्ट है कि जिसमें किसी प्रकारके विकल्पका प्रवेश नहीं ऐसा निर्विकल्प चिचमत्कारस्वरूप विज्ञानघन आत्मा ही एकमात्र ऐसा आलम्बन, सहारा, ध्येय या आश्रय है जो इस आत्माके उपयोगका विषय होकर स्वयं समयसार हो जाता है। श्री पद्मप्रभमलधारी देव नियमसारमें इसे कारण परमात्मा कहते हैं मो उसका तात्पर्य भी यही है। __ 'निश्चयनयसे देखा जाय तो वह चैतन्य एक ही है । उस अखण्ड एक वस्तु में विकल्पोंको अणुमात्र भी स्थान नहीं। जो कर्म, नोकर्म और विक री भावोंसे रहित एसे उत्कृष्ट एकरूप ब्रह्मको जानता है-बोधस्वरूप आत्माको अनुभवता है वह तत्म्वरूप हो जाता है । ' ये आचार्य पद्मनन्दिके वचन हैं। सो इससे भी यही ज्ञात होता है कि स्वरूपोपलब्धिके लिए अभेदस्वरूप, सब प्रकारके विशेषणोंसे रहित एकमात्र आत्मा ही आश्रय करने योग्य है। इस अखण्ड ज्ञानघनस्वरूप आत्माका आश्रय करने पर-तत्म्वरूप आत्माको अनुभवने पर आत्मानुभूतिरूप परिणत वह स्वयं सम्यग्दर्शन है, वही स्वयं सम्यग्ज्ञान है और वही स्वयं सम्यक्चारित्र है। ये प्रकृतमें उपयोगी कुछ तथ्य हैं । आगे इनको लक्ष्यमें रख कर साध्य-साधकभावका विचार करना है । यहाँ माध्य न तो देवेन्द्रपदकी प्राप्ति है और न चक्रवर्तिपदकी प्राप्ति ही, इस आत्माका यदि कोई सच्चा साध्य है तो एकमात्र विकारी भावोंसे रहित आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ही है। पूर्व में जिन चार प्रश्नोंका खुलासा किया है उनसे यह स्पष्ट ज्ञान होता है कि व्यवहार मोक्षमार्ग तो कहने मात्रके लिए मोक्षमार्ग है, एकमात्र निश्चय मोक्षमार्ग ही सच्चा मोक्षमार्ग है। और उसकी उत्पत्ति त्रिकाली ज्ञायकभावको लक्ष्यमें लेने पर होती है, इसलिए आत्मम्वभावकी प्राप्तिका यदि कोई यथार्थ साधन है तो वह त्रिकाली ज्ञायकभाव ही है, क्योंकि परको और पर्यायको लक्ष्य बनाकर जो अभीतक राग द्वेप और मोहकी उत्पत्ति होती आ रही थी, वह न हो, यदि इसका कोई सच्चा उपाय है तो एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक स्वभावको लक्ष्यमें लेना ही है। यह निश्चय साधन है। इसके सिवा अन्य सब व्यवहार साधन हैं। __ शंका साधन कहो या उपादान, इन दोनोंका एक ही अर्थ है और आगम में पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको उपादान कहा है। ऐसी अवस्था में केवल त्रिकाली ज्ञायकभावको स्वरूप प्राप्तिका निश्चय साधन कहना ठीक नहीं है। पंचास्तिकाय गाथा १५४ की टीकामें मोक्षमार्गके स्वरूपका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि जीवस्वभाव में नियत चारित्रका नाम मोक्षमार्ग है और यथार्थमें जीव स्वभाव ज्ञान-दर्शन है । सो इससे भी यही विदित होता है कि न केवल सामान्य अंशसे कार्यकी उत्पत्ति होती है और न केवल विशेष अंशसे ही, अत एव सर्वत्र साधनका निर्देश करते समय विवक्षित पर्याययुक्त द्रव्यका ही निर्देश करना चाहिए, एक एक अंशका नहीं। समाधान-यह ठीक है कि कार्यका उपादान न केवल सामान्य अंश होता है और न केवल HARDENOMOS HanipyERRORIANDIA

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