Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 160
________________ HIRPRIYADAR yubtivister SaptasyainnoudMVASNAAChyyan कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ के (२) वर्तमान काल में कुछ भाई ऐसा लिखने लगे हैं कि व्यवहार करते करते निश्चयकी प्राप्ति होती है। इसकी पुष्टि में उनका कहना है कि चौथा; पांचवां और छठा गुणस्थान व्यवहाररूप हैं। इसके बाद जब यह जीव सातवें गुणस्थानको प्राप्त होता है तब उसे निश्चयकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार वे चौथे आदि तीन गुणस्थानों में एकान्तसे मात्र व्यवहारको स्वीकार करते हैं और सातवें आदि गुणस्थानों में एकान्तसे मात्र निश्चयका कथन करते हैं। अब प्रकृतमें यह विचार करना है कि वस्तुस्थिति क्या है ? आगे इसी विषयका विचार किया जाता है (१) नियम यह है कि कोई मिथ्या दृष्टि जीव (उपशम सम्यक्त्यकी अपेक्षा) तीन करण परिणाम करके या (वेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा) करण परिणाम किये बिना कोई चौथेको, कोई पाँचवेंको और कोई सातवें गुणस्थानको प्राप्त होता है । अब प्रश्न यह है कि जो मिथ्यादृष्टि जीव सातवें गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके केवल निश्चय रत्नत्रय ही होता है या वहाँ भी निश्चय रत्नत्रयके साथ व्यवहार रत्नत्रय होता है । श्री द्रव्यसंग्रह गाथा ४७ में इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि मुनि ध्यानद्वारा निश्चय-व्यवहार दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको प्राप्त करते हैं । इसकी टीका करते हुए ब्रह्मदेवसूरिने जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चय मोक्षमार्गको उसीप्रकार ब्यवहाररत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्गको निर्विकार स्वसंवित्तिस्वरूप परम ध्यानके द्वारा मुनि प्राप्त करते हैं । यह तो सातवें गुणस्थानकी बात हुई । अब छठे गुणम्थानका विचार कीजिए । ऐसा तो कोई भी विवेकी स्वीकार नहीं करेगा कि छठे गुणस्थानमें देव, गुरु और शास्त्रकी श्रद्धाक साथ मात्र पाँच महाव्रत आदिके आचरणरूप (विकल्परूप) व्यवहार चारित्र ही होता है। वहाँ आत्माकी विशुद्धिरूप निश्चय रत्नत्रय होता ही नहीं, क्योंकि एमा मानने पर व्यलिंगी मुनि और भावलिंगी मुनिमें कुछ भी भेद न रह जायगा। कारण कि बाह्य में देव, गुरु, शास्त्रकी श्रद्धाके साथ पाँच महाव्रत आदिका आचरण तो द्रव्यलिंगी मुनिक भी पाया जाता है । इससे स्पष्ट है कि जिसप्रकार निश्चय-व्यवहार दोनों प्रकारका मोक्षमार्ग मात गुणस्थानमें होता है उसो प्रकार वह दोनों प्रकारका मोक्षमार्ग छठे गुणस्थानमें भी होता है । यदि फरक है तो इतना ही कि सातवे गुणस्थानमें निर्विकल्प ध्यानकी मुख्यता होनेसे वहाँ संज्वलन राग अबुद्धिपूर्वक रहता है और इस प्रकार वहाँ युगपत् दोनों प्रकारका मोक्षमार्ग बन जाता है । इसी प्रकार छटे गुणस्थानमें भी बुद्धिपूर्वक संज्वलन कपायके साथ तीन कषायोंके अभावरूप वीतराग चारित्रका सद्भाव होनेसे युगपत् दोनों प्रकारका मोक्षमार्ग बन जाता है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक जीवमें निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग एक साथ प्रगट होते हैं। परमात्मप्रकाश ( अ. २ दोहा १४ संस्कृत टीका ) में बतलाया है कि निश्चय मोक्ष. मार्ग दो प्रकारका है-सविकल्प मोक्षमार्ग और निर्विकल्प मोक्षमार्ग । इसमें जो विकल्प हैं

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