Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 158
________________ ***** 3. ye मधुर ‌हाई कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ साध्य - साधकभावका प्रकार ओर उसका सम्यक् स्वरूप अध्यात्मरत्न श्री रामजी माणिकचन्दजी दोशी, सोनगढ़ जिनागम में साध्य क्या और साधक कौन इस विषयका विविध स्थलों पर विविध दृष्टिकोणोंसे स्पष्टीकरण किया गया है, किन्तु उन दृष्टिकोणोंके साथ उक्त विषयका यथार्थ परिज्ञान करनेके लिए सर्व प्रथम आगे बतलाये जानेवाले विषयोंको जान लेना अत्यन्त उपयोगी है, इसलिए पहले उनका स्पष्टीकरण किया जाता है १. ष्टिसे निश्चय मोक्षमार्ग वही एक मोक्षमार्ग है, व्यवहार मोक्षमार्ग वह सच्चा मोक्षमार्ग नहीं । २. निश्चय और व्यवहार मोनारी ये दोनों एक साथ प्रगट होते हैं ? ३. निश्चयनय निपेचक और व्यवहारनय निषेध्य है । ४. निश्चय मोक्षमार्ग एकमात्र त्रिकाली अभेद ज्ञाभावरूप परिणमन क्रियाके होने पर प्रगट होता है, अन्य प्रकार से नहीं । आगे इन विषयोंका क्रमसे खुलासा करते हैं ( १ ) निश्चय मोक्षमार्ग ही मोक्षमार्ग क्यों है और व्यवहार मोक्षमार्ग सच्चा मोक्षमार्ग क्यों नहीं इस विषय पर सुन्दर ढंगसे प्रकाश डालते हुए ( १ ) प्रवचनसार गाथा ८०, ८१९ और ८२ तथा उनकी टीका में बतलाया है कि जो द्रव्य, गुण और पर्यायरूपसे अरिहन्तोंको जानकर अपने मनसे यह जानता है कि जिसप्रकार त्रैकालिक प्रवाहरूप अरिहन्तोंका द्रव्य है उसीप्रकार मेरा द्रव्य भी त्रैकालिक प्रवाहरूप है, जिसप्रकार अरिहन्तोंका एकरूप रहनेवाला चैतन्यरूप विशेषण गुण है उसी प्रकार मेरा भी एकरूप रहनेवाला चैतन्यरूप विशेपण गुण है और जिस प्रकार उस प्रवाह में जो क्षणवर्ती व्यतिरेक हैं वे अरिहन्तोंकी पर्याय हैं उसीप्रकार उस प्रवाह में जो क्षणवर्ती व्यतिरेक हैं वे मेरी पर्याय हैं । और फिर ऐसाजानने के बाद जो गुण और पर्यायोंको द्रव्यमें अन्तर्गत करके परिणामी परिणाम और परिण तिका भेद विकल्प छोड़कर अभेदरूप अर्थात् मात्र अपने आत्माका आश्रय लेता है उस आत्मा के निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होनेसे निराश्रय भावको प्राप्त हुआ मोह - दर्शनमोह (म्व - पर में एकत्वबुद्धिको उपजानेवाला मिथ्यात्वभाव) नाशको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार जिसने दर्शनमोहको दूरकर आत्माके सम्यक् तत्वको प्राप्त कर लिया है यह जब उक्त विधिसे भेदविकल्पसे रहित शुद्ध आत्मतत्त्वका पुनः पुनः आश्रय लेता है तब उसके क्रमशः राग-द्वेषरूग परिणामका अभाव होकर (सराचचारित्रका अभाव होकर ) निराकुल सुखस्वरूप परम वीतरागदशा प्रगट होती है । आचार्य कहते हैं कि कर्मोंका क्षय कर जितने भी अरिहन्त हुए, वर्तमान में हो रहे हैं और अनागत कालमें होंगे वे सब एकमात्र इसी मार्गसे अरिहन्त हुए हैं, हो रहे हैं और

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