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कानजी स्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ
करनी चाहिए, क्योंकि अन्य द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यके गुणों (पर्यायों) को उत्पन्न करनेका अयोग है। कारण कि सभी द्रव्योंका स्वभावसे ही उत्पाद होता है ।
यह है उपादान और निमित्तकी कार्यके प्रति वास्तविक स्थितिका स्वरूपाख्यान । जो भव्य इसे इसी रूप में अन्तःकरण पूर्वक स्वीकार करता है वह नियमसे मोक्षभागी होता है ।
मुनिधर्म और गृहस्थधर्म
श्री प्रेमचन्द जैन एम. ए., वाराणसी
जैनधर्म में मोक्षमार्ग पर आरूढ़ व्यक्ति दो भागों में विभक्त किये गये हैं- गृहस्थधर्म और मुनिधर्म । गृहस्थधर्म अपवाद मार्ग है और मुनिधर्म उत्सर्ग मार्ग । जो व्यक्ति स्वरूपस्थितिरूप चारि सद्भाव में सविकल्पदशामें २८ मूलगुणों और तदाश्रित बाह्य क्रियाका सम्यक् प्रकार से पालन करते हैं उनके मुनिधर्म होता है । इनके मिथ्यात्वके साथ तीन कपायोंका अभाव होकर दसवें गुणस्थान तक मात्र संज्वलन कपायका सद्भाव पाया जाना है ।
चारित्र के दो भेद हैं- सराग चारित्र और वीतराग चारित्र । तीन कपायोंके अभाव में जो आत्माकी स्वरूपस्थितिरूप वीतराग परिणति होती है उसकी वीतराग चारित्र संज्ञा है । यह आत्माकी स्वभाव परिणति होने के कारण इसे निश्चय चारित्र भी कहते हैं ।
किन्तु इसके साथ छटवें गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक और सातवेंसे दसवे गुणस्थान तक अपूर्व जो कपालेशका सद्भाव पाया जाता है वह यद्यपि रागांश है फिर भी वीतराग चारित्र के साथ उसका सदभाव होनेके कारण उसकी सरागचारित्र संज्ञा है । आचारका प्रतिपादन करनेवाले चरणानुयोग के शास्त्रों में मुख्यरूपसे इस सरागचारित्रको लक्ष्य कर मुनिधर्म और गृहस्थधर्मका निरुपण हुआ है। इस परसे यदि कोई बाल विकल्परूप या क्रियारूप प्रवृत्तिको सुनिधर्म माने तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल है । निश्चय चारित्र के अभाव में ऐसा प्रवृत्तिरूप चारित्र तो इस जीवने अनादि कालसे अनन्त बार प्राप्त किया पर उससे इसे परमार्थकी प्राप्ति नहीं हुई । वह परमार्थकी प्राप्तिका मार्ग भी नहीं है । निश्चय चारित्रकी उसके साथ बाह्य व्याप्त होनेके कारण वह तो निश्चय चारित्रके ज्ञान करानेका एक साधनमात्र
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आगम में द्रव्यलिंग और भावलिंग इन दो लिंगों का निरुपण हुआ है । वहाँ बतलाया
अर्थात् ऐसा जीव जिसने
है कि जिसके भावलिग होता है उसके द्रव्यलिंग होता ही है । तीन कपायोंका अभाव कर दिया है, चरणानुयोग में बतलाई हुई विधिके अनुसार २८ मूल गुणोंका सम्यक् प्रकारसे पालन करता है, चतुर्मासको छोड़कर ग्राममें एक दिन और नगर में अधिक से अधिक पाँच दिन तक रहता है, ४६ दोष और ३२ अन्तरायोंको टालकर आहार.